उस तक पहुँचने के अधिकारी बनो

           प्रत्येक मनुष्य अपने उद्देश्य तक पहुंचने की योग्यता रखता हैदासता के जुए में जिनकी गर्दन है वे कभी आशा नहीं कर सकते कि उनमें से कभी भी कोई राजा बनेगाअमरीका का एक बूट साफ करने वाला लड़का भी आशा करता है कि सम्भवत: वह किसी समय अपने देश का राष्ट्रपति बन जाएसंसार में कोई ऐसा जीव नहीं है जो अपने उद्देश्य तक न पहुंच सके। मार्ग सबके लिए एक जैसा है। उसकी कठिनतायें और सुगमतायें राजा और प्रजा, विद्वान् व मूर्ख सबके लिए एक जैसी है। हाँ, भेद अपने कर्मों का है। गुसाईं तुलसीदास जी कहते हैं-


                                     कर्म प्रधान विश्व रचि राखा l 
                                     जो जस करहिं सो तस फल चाखा॥ 


             'जैसी करनी तैसी भरनी'। यह नियम सबके लिए है तब अपने कर्तव्य के पालन से ही अपने उद्देश्य की ओर कदम उठ सकता है। उस वास्तविक कर्त्तव्य की पूर्ति से मनुष्य को रोकने के लिए इस संसार में अनेक प्रलोभन हैं। एक-एक पग पर बीसों विषय जीवात्मा को अपनी ओर खींचते हैं और इस मोह में फंसकर पग-पग पर ठोकरें खाता है। जब इस प्रकार अनेक प्रलोभन रास्ते में हों तो मनुष्य अपने उद्देश्य की ओर कैसे चल सकता है ?


              इसका आसान उपाय भी श्रीकृष्ण भगवान् बताते हैं। अगर तुम अपने कर्त्तव्य को पूरा करने में दत्तचित्त होना चाहते हो तो सबसे पहले सम्पूर्ण आत्मज्ञान के तत्त्व को समझो। सारा जगत् कहाँ से आया? क्या इसके अन्दर स्वयं बनने की शक्ति है? जड़ जगत् कैसे बन सकता है और कैसे स्वयं बिगड़ भी सकता है? इसलिये इसके अन्दर कोई चेतन शक्ति अवश्य काम कर रही है। जब तक हम सारे जड जगत् में एक ही नियम का परिपालन होते देखते हैं तब हमें कोई सन्देह नहीं रहता कि यह चेतन शक्ति हर जगह व्यापक है। कोई सांसारिक अवस्था उसकी उपस्थिति से खाली नहीं है गलाब के फल को यदि सुन्दरता मिली है तो उसने उस सन्दरता की रक्षा के लिए उसके चारों ओर   


              कांटों की बाड लगाई है। प्रभु ने हर वस्तु के अन्दर चतनता का प्रकाश किया हैइसलिये जो बुद्धिमान मनुष्य अपने कर्त्तव्य को समझ लेता है उसके लक्ष्य को सांसारिक प्रलोभन बिगाड नहीं सकते। व्यापक परमात्मा की उपस्थिति को हर स्थान पर अनुभव करने वाला मनुष्य अपने विषय की ठोकर से बचकर अपना कर्त्तव्य पूरा करता हुआ, सीधा अपने लक्ष्य की ओर चला जाता है। वह मार्ग में एक सुन्दर मनुष्य को देखता है, एक पल के लिए ठहर जाता है परन्तु फौरन उसके मन में विचार उठता है कि आकृति दस साल बाद बिल्कुल बदल जायेगी यदि कोई रोग लग जाये तो सम्भवतः एक दिन में जमीन आसमान का अन्तर आ जाये। मननशील व्यक्ति अपने मन में सोचता है कि इसके अन्दर सुन्दरता कहाँ से आई? क्योंकि यदि इसका यह वास्तविक गुण होता तो इसमें परिवर्तन न आता। फिर क्यों उस सौन्दर्य के स्रोत की ओर चलें जिससे कि इस तुच्छ पंचभूतों के शरीर ने सुन्दरता प्राप्त की है। इस विचार में पूर्ण रूप धारण किया और बुद्धिमान् पुरुष आगे चल देता है, इस प्रकार अपने लक्ष्य को समझकर अपने कर्तव्य का सहारा ले लिया है। जिसने अपने लक्ष्य परमात्मा को बनाया है और उसे सारे विश्व की माता अनुभव किया है, वह सांसारिक विषयों के अन्दर कैसे फंस सकता है? हर सौन्दर्य के अन्दर वह माता का सौन्दर्य देखता है और प्रत्येक आकर्षण पदार्थ में उसे माता का प्रेम नजर आता है। न केवल यही बल्कि कष्ट और क्लेश में भी उसे पिता के न्याय का हाथ दिखाई देता है।


              प्रिय पाठकगण ! अपने कर्त्तव्य को समझो। वही तम्हारा धर्म है। परमात्मा की भक्ति और उसकी पूजा तम्हें जीवन उद्देश्य की ओर ले चलेगी। हम उसकी पजा कैसे करें। किस वस्तु में वह व्यापक नहीं है। और कौन सी वस्त है जो उसकी नहीं है? उसके लिए हम बाहर से भेंट क्या लायेंगे? इसलिये तो वेद में कहा है कि मन, वचन और कर्म से किया हुआ सब कुछ परमात्मा को अर्पण करोयहाँ तक कि 'आत्मा यज्ञेन कल्पताम्। यज्ञोयज्ञेन कल्पताम्।' फिर परमात्मा से तुम दूर न रहोगे क्योंकि परमधाम के लिये समय या दूरी रुकावट नहीं है। परमधाम तुम्हारे अन्दर मौजूद है और तुम बाहर भटक रहे हो। परमपिता के अमृत पुत्रो! अपने परम अधिकार को समझो और उस तक पहुंचने के अधिकारी बनो l


-साभार श्रद्धामृत


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