उद्बोधन गीत


उद्बोधन गीत


 


वेला अमृत गया, आलसी सो रहा वन अभागा|


साथी सारे जगे तू न जागा ||


झोलियाँ भर रहे भाग्य वाले, लाखों पतितों ने जीवन सँभाले\


रंक राजा बने, भक्ति-रस में सने कष्ट भागा।। साथी0|


कर्म उत्तम थे नर तन जो पाया, आलसी बनके हीरा गँवाया|


सौदा घाटे का कर हाथ माथे पै धर रोने लागा।साथी0।


धर्म वेदों का देखा न भाला, वेला अमृत गयाना। सँभाला|


उलटी हो गई मति, करके अपनी क्षति चोला त्यागा।। साथी0।


'देश' अब भी न तूने विचारा, सिर से ऋषियों का ऋण न उतारा|


हँस का रूप था, गन्दला पानी पिया बनके कागा।साथी0।


 


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