त्रिविध ऋणों से मुक्ति


त्रिविध ऋणों से मुक्ति


      शास्त्रकार का वचन है-जायमानो ह वै ब्राह्मणः त्राभर् ऋणैः ऋणवान जायते । जन्म से ही ब्राह्मण तीन ऋणों से आबद्ध हो जाता है। यहाँ जन्म शब्द से द्वितीय विद्यातः-जन्म ग्रहण करना चाहिएहमारे विचार में तै० संहिताकार ने इस वाक्य में ब्राह्मण पद का प्रयोग इसलिए किया है कि ब्राह्मण विद्यातः जन्म की पराकाष्ठा है। निःसन्देह वैश्य, क्षत्रिय भी द्विज हैं, परन्तु ब्राह्मण उनमें ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है और संन्यास-ग्रहण का अधिकार ब्राह्मण-वर्णस्थ व्यक्ति को ही है। ब्राह्मणेतर, वैश्य और क्षत्रिय यदि संन्यास लेना चाहें तो उन्हें भी योग्यता से ब्राह्मण बनना होगा। इसी कारण उनके लिए वानप्रस्थाश्रम आवश्यक है। यतः वानप्रस्थाश्रम में रहकर व्यक्ति ब्राह्मणत्व का अभ्यास करता है-अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ वानप्रस्थ में इन सभी कर्मों का स्वत: अभ्यास हो जाएगा। तब उसे भी संन्यास-दीक्षा का अधिकार होगा। यदि वे उन गुणों को धारण नहीं कर पाए तो उनके लिए संन्यास-दीक्षा का निषेध है, अतः लिखा जायमानो ह वै ब्राह्मणः त्रिभिर् ऋणैः ऋणवान् जायते ।


       संन्यास शब्द का अर्थ सम्यक्तया न्यास है। महर्षि दयानन्द ने संन्यास-संस्कारविधि प्रकरण में संन्यास शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया है-सम्यक् न्यस्यन्त्यधर्माचरणानि येन, वा सम्यङ् नित्यं सत्यकर्मस्वास्त उपविशति स्थिरीभवति येन स 'संन्यासः'। संन्यासो विद्यते यस्य स 'संन्यासी'। सम्यक् न्यास का नाम संन्यास है। उक्त निर्वचन में दो बातें सामने आईं-एक अधर्माचरण का न्यास, दूसरे सद्गुणों का अपने में स्थापन कर उसको यत्र-तत्र सर्वत्र बाँटते रहना और जो सत्पात्र मिलें उनमें न्यास कर देना। यतः सद्गुणों की धरोहर सत्पात्र में सुरक्षित कर देने से उत्तरोत्तर बढ़ती ही है, घटती नहीं, अतः एक निर्वचन सत्सुन्यासः संन्यासः भी होगा ।


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