तप, तीर्थ, व्रत
तप, तीर्थ, व्रत
तप-
ऋतं तपः सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्यायस्तपः। (तैत्तिरीयोपनिषद्)
अर्थात् यथार्थ शुद्धभाव रखना, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, मन को बुराईयों की ओर न जाने देना, शरीर, इन्द्रियां और मन से शुभ कार्मों का करना, वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कार्यों का नाम तप है। धूनी लगाके सेकने का नाम तप नहीं है।
बहुत से लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं। महीनों खड़े रहते हैं जिससे उनकी टांगों में खून उतर आता है और सूज कर बहुत कष्ट देती हैं। शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैंसिर के बालों को कैंची से काटने की बजाय हाथ से नोचते हैं इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म हैं। अपितु पाप और हिंसा हैं, बहकावा और छलावा हैं।
तीर्थ
वेद आदि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, . परोपकार, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, माता, पिता, आचार्य, अतिथि की सेवा करना, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, जितेन्द्रियता, सुशीलता, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण और कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं।
“जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि" मनुष्य जिन करके दु:खों से तरें उनका नाम. तीर्थ है।
जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबोकर मारने वाले हैं। इसलिये वे तीर्थ नहीं हैं। नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उनसे नदी को तरते हैं। जल में तैरने की विद्या भी तीर्थ हो सकती है।
व्रत
ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।। (यजुर्वेद)
अर्थ-हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतों के पालक प्रभु ! मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हैं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह व्रत सिद्ध हो अर्थात् मैं अपने व्रत पर पूरा उतरूं।
यही व्रत करने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए विशेष दिन अन्न जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना ही व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार (इलाज) करवाना ही व्रत है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उसका पालन करना व्रत कहलाता है |