ऋषिबोध : चेतना को चनौती


         हमारी भारतीय संस्कृति ही सच्चे अर्थों में संस्कति होने का गौरव प्राप्त करने योग्य है। कई लोग जाने-अनजाने में तो कई लोक व्यवहार के प्रवाह में 'पाश्चात्य संस्कृति' जैसे शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं। सच यह है कि जैसे वैदिक धर्म से भिन्न दूसरा कोई धर्म नहीं हो सकता उसी प्रकार वैदिक संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति भी नहीं हो सकती। वैदिक संस्कति की विशेषता यह है कि वह विश्व की ऐसी विलक्षण संस्कति है. जिसमें मानव मात्र के सर्वांगीण विकास एवं समग्र सुखों के समायोजन के साथ मानव के चरम उत्कर्ष मोक्ष-प्राप्ति तक का संपूर्ण विधि-विधान तर्कसंगत व विज्ञान-सम्मत ढंग से सम्प्राप्त है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं जो कहीं किसी विसंगति को जन्म देता हो, उच्छंखलता या उद्दण्ड प्रवतियों को बढाने वाला हो। यहां सब कुछ सौम्य है, शालीन है. शांतिप्रद है। आश्चर्य की बात तो यह है कि वैदिक संस्कृति के आदर्श इतने ऊंचे हैं. इतने उदार हैं कि परातन होने के साथ इसमें नवीनता के रूप में वर्तमान को संजोये रखने एवं अपना अंग बना लेने की अनूठी क्षमता है। यद्यपि हमारे श्रावणी उपाकर्म, विजयदशमी, दीपावली, होली जैसे पर्व विशद्ध रूप से सांस्कतिक पर्व हैं. इन्हें किसी ऐतिहासिक घटना से जोडना अजानता ही है. लेकिन कई ऐतिहासिक घटनाएं भी इतनी ही गरिमा के साथ हमारे इन सांस्कतिक पर्वो की कडी में जड गई हैं। श्री कष्ण जन्माष्टमी हो या श्रीराम नवमी, शिवरात्रि हो या अन्यान्य लोकमान्य ऐसे पर्व, ये सब हमारी विश्व संस्कृति की महानता व आदर्शपूर्ण उदारता के जीवित प्रमाण हैं। शोक की बात यह है कि हमारे कुछ धूर्त राजनेताओं की राष्ट्रघाती कुटिलताओं के कारण हमारे स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे महान अवसर हमारी संस्कृति का अंग नहीं बन सके और भविष्य में ये हमारी संस्कृति का अंग बन सकेंगे, ऐसी संभावनाएं भी नहीं दिखतीं। कारण है कि इनमें कहीं भी अपनी सांस्कृतिक गरिमा व जीवन शक्ति न तब थी और न आज है।


          हम वैदिक संस्कृति व अपने सांस्कृतिक पर्वो की चर्चा कर रहे थे। ऐसे ही सांस्कृतिक पर्यों की सूची में शिवरात्रि का भी एक पर्व है। इस पर्व के संबंध में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या रही है, यह निर्विवाद रूप से पर्याप्त अनुसंधानों के बाद ही कह पाना संभव होगा। जो भी हो, आज यह पर्व एक नई उपयोगिता लेकर हमारे मध्य में उपस्थित है।


          हमारा मानना है कि बालक मलशंकर को नई चेतना देकर यह पर्व अपने आप में अपनी सार्थकता प्रकट कर गया और उस छोटी सी घटना ने इसे नये कलेवर नये आदर्शों और नई प्रेरणा का युगांतरकारी प्रकाश पुंज बना दिया है। घटना अपने आप में कोई बड़ी या छोटी नहीं होती, उसके प्रति हमारा दष्टिकोण ही उसे बडी या छोटी बना देता है। क्या बालक मूलशंकर के पर्व या पश्चात किसी भक्त ने पाषाण मूर्ति की जड़ता व निष्प्रयोजनता सिद्ध करने वाली घटना-दुर्घटनाएं नहीं देखीं? चमत्कारी कही जाने वाली मर्तियों को आक्रमणकारी लटेरे मुसलमानों ने मिट्टी के ढेले की तरह चूर-चर कर दिया। उनके अंदर छिपाकर रखे गए अकूत धन को बाप की दौलत मानकर वे वहशी दरिंदे ले गए। आज मंदिरों के अंदर बलात्कार जैसे जघन्य पाप हो रहे हैं। सैकड़ों वर्षों तक देवदासियों के साथ धर्म के


           नाम पर इस धर्मस्थलों में पत्थर के भगवानों के सामने क्या होता रहा-कान नहीं जानता ? लेकिन इन सबको देखकर किसी ने वह सोचा जो शिवरात्रि को चहे की उछलकद देखकर बालक मलशंकर ने सोचा? काश! किसा ने सोचा होता तो वह उस सौभाग्य को ले उड़ा होता, जो सदिया तक मलशंकर की प्रतीक्षा करता रहा। मूलशंकर की विवेकदृष्टि न चमच से प्राप्त उस दश्य के निहितार्थ को समझा-एक निष्कर्ष निकाला. जिस भगवान की पूजा के लिए यहां लाया गया है, यह वह 7. जो गण बताए गए थे. इसमें वे गुण नहीं हैं। मूलशकर का विशेषताओं व मान्यताओं पर खरा नहीं उतरने पर मूलशकर, जाने वाले को एक झटके से त्याग दिया। विवेक-सम्मत न हान पर सोया दिया विवेकसम्मत न होने पर भी कोई चीज हमारे जीवन में बनी हई है तो यह हमारी बौद्धिक क्षमता या आत पर प्रश्नचिह्न नहीं-नहीं, एक बड़ा सा प्रश्नाचह्न बनी रहता है l  शिवरात्रि को मूलशंकर की घटना की यही छोटा सी शिक्षा है l


          आर्यो। आपकी हम सबकी स्थिति बहुत शोचनीय है, आत्मग्लानि पैदा करने वाली है। हम दयानंद के अनुयायी है न, दयानद क वारसा हैंन दयानंद के सच्चे भक्त हैं न? क्या हम हैं? या नहीं है? य प्रश्न हमार हृदय पर हथौड़े की चोट जैसे लगते हैं। हमसे इनका उत्तर हा या " के रूप में देना कितना कठिन है। हम अपने निकट यह भलाभात जानत हैं कि हम सच्चे अर्थों में आर्य या ऋषिभक्त कहलाने के आधकारा नहा हैं। हम आर्य नहीं हैं-यह कहें तो हमारे अंदर से ही कचोटने वाला एक प्रश्न उठता है कि फिर आर्य समाज में अपने, यहां के पदाधिकारी बनने या आर्य के रूप में प्रतिष्ठा पाने का हमें क्या अधिकार है? नहीं बंधुओ! चाहे हमें आर्य कहलाने का अधिकार नहीं है, लेकिन आर्य समाज को छोड़ना भी तो हमारे लिए कोई गौरव की बात नहीं। गौरव इसमें है कि हम आर्यत्व के पथ पर चलने की इच्छा रखते हैं, हम आर्य बनना चाहते हैं। क्या यह कोई छोटी बात है कि हम ऋषि के स्वप्नों को पूरा करने, वैदिक संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा के लिए श्रीराम और श्रीकृष्ण का युग लाने के लिए कुछ करना चाहते हैं। हमारा हृदय ऋषि मंतव्यों के प्रति आकर्षित है, हमारे मस्तिष्क को वैदिक विचारधारा अपनी ओर खींचती है, तो हमसे कटकर पतनगामी प्रवृत्तियों के ग्रास क्यों बनें? क्या हआ जो हम सच्चे न बन सके, बनने की प्रक्रिया तो स्वीकार कर ली। यह भी आज के युग में बहुत बड़ी बात है, अन्यथा जनमानस किस प्रवाह में बह रहा है. कौन नहीं र जानता। आर्या! हम भाग्यशाली हैं। देखना यह है कि हमारे दस औ हमारे आलस्य-प्रमाद का रोग कीट तो नहीं खा रहा. हमारे इस सौभाग्य में हमारी ही कुछ आंतरिक दुर्बलताएं व कटिलताएं तो नहीं काट रहीं? देखना यह है कि हमारे कुछ दोष, दुर्गुण वा दुराग्रह तो दुर्भाग्य में नहीं बदल रहे? बंधुओ! हम चाहे व्यक्तिगत स्तर पर बात करें या सामाजिक स्तर पर सर्वत्र हमारी आंतरिक दुर्बलताएं ही हमारी दुर्दशा का मूल कारण होती है। हमारीआंतरिक कमजोरियां ही हमें वह सब नहीं करने देती जिन्हें हमारा हृदय व मस्तिष्क हमारे लिए अच्छा मानता है। हमें दयानंद का शिष्य तो बनना ही है, इसलिए अपनी उन आतरिक दुर्बलताओं के विरुद्ध विजयी अभियान छेड़ना ही होगा। अपने अंदर वो मूलशंकर वाली चेतना उत्पन्न करनी ही होगी। मूलशंकर भी कभी हमारी, आपकी जैसी अपनी दुर्बलताओं से लड़ा ही होगाआत्मिक बल या विवेक बुद्धि उपहार या दहेज में नहीं मिलती, उसके लिए तपना पड़ता है, जूझना पड़ता है स्वयं अपने अंदर के कुसंस्कारों से जो हमारे आत्मोत्थान अभियान में उपद्रव करते या बाधाएं डालते हैंहम उनसे लड़े बिना उन पर विजय प्राप्त किए बिना दयानंद के सच्चे सैनिक वा शिष्य नहीं बन सकते। पीछे कदम हटाना तो कायरों का काम है, हम राम और कृष्ण के वंशज कायर नहीं। संकल्प लो कि हम दूसरों से नहीं स्वयं से लड़ेंगे, हम सामाजिक बुराइयों से तभी लड़ सकेंगे, जबकि हम अपनी बुराइयों को जीत लेंगे। स्वयं से हारा हुआ व्यक्ति किसी दूसरे को क्या जीत सकेगा।


                                    चेतना की चाह में हम, स्वयं से जूझें सदा,
                                    मारकर सब दुरित दुर्गुण, भद्र गुण पूजें सदा।
                                    दुरित हमको दुर्दशा में, डालते सब जानते हैं,
                                    पर न जाने क्यों मनुज, इस सत्य को नहीं मानते हैं।
                                    आर्यो सोचो! अटल सत में भला संशोध कैसा ?
                                    चेतना चरितार्थ ना हो तो मना 'ऋषि बोध' कैसा ?


रामनिवास 'गुण ग्राहक'
-पुरोहित आर्य समाज, श्रीगंगानगर



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