स्वराज्य की अर्चना


स्वराज्य की अर्चना


अधि सानौ नि जिघ्नते, वज्रण शतपर्वणा।


मन्दान इन्द्रो अन्धसः, सखिभ्यो गातुमिच्छत्यर्चन्ननु स्वराज्यम् ।


        यदि नदी में जल बहे और हरियाली को जन्म न दे तो उसका बहना व्यर्थ है। हरियाली भी मरुभूमि में पैदा करे तो सार्थक होगा उसका बहना । आत्मा के ऐश्वर्य में रमण करनेवाले इन्द्र का पराक्रम इतना ही नहीं है कि वह वत्र से जलों को मुक्त करके बहा दे वरन् यह भी है कि उस जल से हरी-भरी फ़सलें झूमने लगें, प्रचुर मात्रा में अन्न पैदा हो । इस मंत्र में उसके इस प्रकार के सामर्थ्य का उल्लेख है। 


       इन्द्र अन्न-प्रदाता है। पर वह अन्न उनको देता है जिनका वह सखा बन जाता है। इन्द्र देवराज है अन्य देवों की तरह वह भी पसीना बहानेवाले श्रमिकों का सखा बनता है । जो श्रम नहीं करते उनका सखा कोई देवता नहीं बनता-न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः।


      वृत्र को मारने में इन्द्र का क्रोध प्रकट होता है तो अपने सखानों के लिए अन्न देने–अन्नप्राप्ति के उपाय खोजने में उसे आनन्द  प्राता है । शरीर में प्रात्मा का आनन्द-स्वरूप तब प्रकट होता है जब शरीर के अाधारभूत तत्त्व, अन्न की प्राप्ति होरही हो । आनन्दित होनेवाला इन्द्र सौ पर्व के वज्र से पहले ही वृत्र को नष्ट कर देता है । उसके वज्र में सौ पर्व क्यों होते हैं ? इसलिए कि मनुष्य की परमायु सौ पौं-वर्षों में परिमित होती है। इन्द्र अपने शतपर्वा वज्र से इस आयु का संरक्षण करता है।


       अन्यत्र वृत्र के सौ आयसी. पुरों का वर्णन है। सौ - वर्ष तक वृत्र भी घात लगाए बैठे रहता है। इन्द्र अपने वज्र से सुरक्षा प्रदान करके अपने सखाओं को–साधकों को-जीवन प्रदान करने में आनन्द का अनुभव करता है और साथ ही साथ उनको जीवनाधार अन्न भी देता है । यह सब उसकी स्वराज्य-अर्चना का अङ्ग है।


                                                 करता हुआ स्वराज्य अर्चना


सौ पर्वो का वज्र चलाकर


इन्द्र वृत्र को मार मोद से


अन्न सखाओं को है देता।


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