स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज का महाप्रयाण


           श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज को आर्यसमाज के आरम्भिक काल के अस्सी वर्षों के इतिहास में सबसे अधिक समय तक समाज-सेवा करने का गौरव प्राप्त हुआ। आपका जीवन बड़ा संघर्षशील रहा। महर्षि दयानन्द जी के पश्चात् धर्म-प्रचार, संगठन और धर्म- रक्षा के लिये तीन विभूतियों ने अद्वितीय तप, त्याग और संघर्ष किया। ये तीन बलिदानी महापुरुष थे- १. पं. लेखराम जी, २. स्वामी श्रद्धानन्द जी, ३. तथा पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज।


             आज इस लेख में स्वामी जी महाराज की सतत साधना तथा संघर्ष के इतिहास पर मुझे कुछ नहीं लिखना। ३ अप्रैल सन् १९५५ में आर्यसमाज के गौ-रक्षा आन्दोलन का नेतृत्व करते हुये श्री स्वामीजी ने ६ बजे सायं तक भक्तों से धर्मवार्ता, सामाजिक चर्चा की, फिर मौन होकर प्यारे प्रभु के ध्यान में लीन होकर मुम्बई में शान्तिपूर्वक नश्वर देह का परित्याग कर दिया। इस लेख में केवल उनके परित्याग विषयक प्रेरक, रोचक, आध्यात्मिक और अत्यन्त प्रेरक प्रसंग ही दिये जायेंगे।


              जब भी स्वामी जी पर आर्य सज्जन लेख देते हैं तो केवल उनके साहस, शूरता, वीरता, निडरता तथा सङ्कटों से जूझने के प्रसंग ही दिये जाते हैं। इससे उनके जीवन के अन्य-अन्य सब पक्ष दब जाते हैं यथा विद्वत्ता, अटल ईश्वर-विश्वास, नियमपालन, वेदनिष्ठ, योग- साधना, शास्त्रार्थ, जप-तप, यम-नियमों की सिद्धि की कोई चर्चा ही नहीं करता। देश के स्वराज्य संग्राम में भी उनके योगदान की यथार्थ चर्चा किस आर्यसमाजी ने किसी पुस्तक व लेख में की है ?


             पं. लेखराम जी ने जैसे ऋषि-जीवन की सामग्री को खोज में ग्राम-ग्राम, नगर-नगर की यात्रायें कीं, इस लेखक ने भी पं. लेखराम के चरणचिह्नों पर चलते हुए देशभर में असंख्य व्यक्तियों से मिलकर स्वामी जी के जीवन के प्रत्येक पक्ष की प्रामाणिक सामग्री खोजकर लौह पुरुष ग्रन्थ में दी।


              मृत्यु का आभास- आज मुझे केवल महाराज के महाप्रयाण पर ही कुछ विशेष लिखना है। श्री स्वामी जी को अपनी मृत्यु का बहुत पहले आभास हो चुका था! आपको अन्तिम वर्ष की डायरी में मृत्यु विषयक आभास का एक स्वप्न लिखा मिलता है। मैंने उसे बड़े ध्यान से पढ़ा और जोवनी में दे दिया। मौत की कल्पना करके ही मनुष्य भयभीत हो जाता है। महापुरुषों के उप, तप, स्वाध्याय, साधना व नैतिकता की कसौटी अन्तिम वेल ही होती है। हमें अभिमान है- हमें अभिमान है कि हमारे पूज्य स्वामी इस कसौटी पर खरे उतरे। मौत से भयभीत होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। उन्हें पता था मौत अब आने वाली है। वह यथापूर्व अकम्म व अडोल रहे।


             महाशय कृष्ण जी ने सुनाया था- १ मई सन् १९५५ को श्री पं. रामचन्द्र जी के संन्यास धारण करने पर श्री महाशय कृष्ण जी भी दीनानगर पधारे थे तब आपने एक महत्त्वपूर्ण घटना सुनाई थी जो मुझे रह-रहकर याद आती है, परन्तु आर्यसमाजी इसे सुनाते ही नहीं। दिल्ली में स्वामी सत्यानन्द जी (श्रीमद्दयानन्दप्रकाश वाले) स्वामी जी के स्वास्थ्य का पता करने आये तो स्वामी जी से कहा, "स्वामी जी आप ठीक हो जायेंगे।"


              स्वामी जी लेटे हुये थे। यह सुनकर तत्काल उठकर बैठ गये और कहा, "स्वामी यदि ठीक न हुआ तो क्या होगा ? मौत ही होगी न? भय किस बात का?" मृत्युञ्जय यतिराट का आत्मा मृत्यु को जीत चुका था। इस विषय की सब घटनायें मैं यहाँ नहीं दे सकता। पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी ने अन्तिम वेला में कुछ ऐसे ही शब्द कहे तो पूज्यपाद स्वामी जी ने कहा, "अब तो रैफरी ने आउट कर दिया है। अब महाप्रयाण होगा ही।" कोई ऋषि मुनि हो दृढ़तापूर्वक अपनी मृत्यु को ऐसे चर्चा कर सकता है।


             मृत्यु की पहली बार चर्चा कब की ?- श्री पं. नरेन्द्र जी ने एक बार हैदराबाद में और फिर लातर अथवा किसी समाज के उत्सव पर मुझे यह घटना सुनाई थी कि सन् १९५३ के आर्य महासम्मेलन में पूज्य स्वामी जो जब हैदराबाद पहुंचे तो स्टेशन पर उन्हें कोई लेने ही न पहँचाव पदल समाज मन्दिर पहुँच गये। उन्हें साधुओं के लिये रक्षित एक सामान्य कमरे में किसी ने ठहरा दियापं. नरेन्द्र जी पता लगते ही स्वामी जी के पास पहुँच गये l


              स्वामी जी पण्डित जी को 'मुंशी' या 'मौलवी' कहा करते थे। बोले "मुंशी तू कहता ही रहता है कि मठ में दीनानगर आयेगा। एक बार तो आ जा। अब इस शरीर का क्या पता कब छूट जाये?'' मेरी जानकारी व खोज के अनुसार स्वामी ने अपनी मृत्यु के आभास की पहली बार सन् १९५३ में हैदराबाद में पं. नरेन्द्र जी से ही चर्चा की।


              पं. हरिदेव जी से कहा- देहली में अपने शिष्य पं. हरिदेव जी करोल बाग के एक प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा था कि हजरत मुहम्मद के इस कथन की "ज्यों-ज्यों मनुष्य बूढ़ा होता है उसकी धन की व जीने की लालसा बढ़ती जाती है।" के संबन्ध में मैं क्या कहूँ? यह हजरत मुहम्मद ही जानें। अपने मन में न पहले धन की लालसा थी और न अब है। न पहले जीने की लालसा थी और न अब ईश्वरेच्छा अपने लिये सर्वोपरि है। मृत्यु से क्या डरना ?


                आर्य पुरुषों को अपने महात्माओं के जीवन के ऐसे प्रसंग मुखरित करने चाहिये।



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