स्पर्श


स्पर्श  


           तुलसीदास की प्रर्दाली-वरस परस मज्जन पर पाना--- में सुखदायिनी जीवन-गंगा में अवगाहन करने का श्रम बताया गया है। सबसे पहले दर्शन । बालक अपनी क्षमता और योग्यता के साथ संसार को देखता है। प्रकृति की रंगरंगीली महफ़िल के रंगों से परिचय पाने के बाद शिणु स्पर्श करके ज्ञान पाने के लिए तैयार होता है। सबसे पहला स्पर्श उसे माता का मिलता है। वह स्वयं उसे छूता है। स्तन्यपान करते रागय मातृस्तन का स्पर्श करके वह अपने पोषण के केन्द्र को पहचानता है श्रीर प्रकृति के लीला-वैचित्य रो परिचित होता है। यह परिचय ही उसे स्पर्श-सुख के माध्यम से ज्ञान पाने के लिए प्रेरित करता है।


           माता के बाद वह पिता व परिवार के अन्य लोगों को स्पर्श का अनुभव करता है कहीं सुखद अनुभव होता है, कहीं दुःखद। इसी अनुभूतिभेद से जीवन में छूत- अछूत की भावना का समावेश होता है । माता चाहती है कि उसका शिशु उन लोगों और वस्तुओं को छुए जिनका स्पर्श उसको कुछ सुखद लगे। जिनका स्पर्श विपरीत असर डालता हो उनको बच्चे से दूर रक्खा जाता है । छूने योग्य 'छूत' है और न छूने योग्य 'अछूत'। परिवार के व्यक्तियों के बाद वह सामने आने वाली हर वस्तु को छूकर उससे परिचय पाता है । अंधों में स्पर्शशक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि वे आँखों वालों से भी अधिक क्षमतापूर्वक स्पर्शमात्र से ज्ञान पा लेते हैं । मीठी और खट्टी वस्तु तक को वे स्पर्श से ही पहचान लेते हैं । बालक समाज में सारे सम्बन्ध स्पर्शजनित सुख के आधार पर निश्चित करता है। उसकी अभिरुचियां भी स्पर्श से ही बनती हैं। भीरु बालक गोद से नहीं उतरना चाहता । उसे भय होता है कि इस स्पर्श से वंचित होने पर वह संकट में पड़ सकता है। बालिकाओं की स्पर्शसंवेदना बड़ी तीव्र होती है।


          स्पर्श से शिशु प्रत्येक रुचि-अनुकूल वस्तु के साथ श्रात्सीयता स्थापित कर लेता है। यह माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने शिशु को अच्छे व्यक्तियों और अच्छी वस्तुओं के संपर्क में आने देंबालक अपनी कनिष्ठिका अंगुली को दूसरे बालक की कनिष्ठिका अंगुली से छूकर मित्रता स्थापित करता है-यह सबने देखा होगा। इससे यह समझना कठिन नहीं है कि बालक स्पर्श के माध्यम से कैसे शिक्षा पाता है।


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