शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी का संन्यास


शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी का संन्यास


       जिसे आज दुनिया दयानन्द नाम से जानती है,उसका पिताश्री द्वारा दिया हुआ नाम मूलशंकर थागृह-त्याग के पश्चात् गुरु के द्वारा दिया हुआ नाम शुद्ध चैतन्य हो गया और महात्मा पूर्णानन्द के द्वारा दिया हुआ नाम दयानन्द पड़ गया। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि जब 'शुद्ध चैतन्य' पूर्ण वैराग्यवान् हो गया तो उसमें प्रबल इच्छा जाग्रत हुई कि मैं संन्यास ग्रहण करूँ। इतनी प्रबल इच्छा कि वह हर किसी गैरिक वस्त्रधारी संन्यासी को देखते तो तत्काल प्रार्थना करते कि भगवन्! मुझे भी संन्यास की दीक्षा दीजिएवह कह देता कि बच्चा! अभी तो मूंछे भी नहीं फूटी हैंइतनी क्या जल्दी है! अभी और तपस्या करो। जब जवानी ढलने लगे तब संन्यास ले लेना | क्या उनको यह पता नहीं था कि भगवान् मनु का उपदेश है कि यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्। जिस दिन भी वैराग्य हो जाए उसी दिन राग-शून्य हो संन्यास ग्रहण कर लेवे। शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी उनके निषेध करने पर सोचता था कि संन्यास-दीक्षा के लिए वैराग्य आवश्यक है, न कि आयु की मर्यादा; ये मुझे संन्यास की दीक्षा क्यों नहीं देते? वह एकान्त में बैठा सोचा करता कि ये लोग मुझे संन्यास क्यों नहीं देते? शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी की इस भावना को आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् कवि और शायर श्री पं० चमूपति जी ने उर्दू शब्दों में बाँधा है। वह लिखते हैं-


है संन्यास क्या ग़म में औरों के गलना,


पराई चिता पर पड़े आप जलना॥


क़दम तेग़ की धार पर धर के चलना,


न हरगिज़ झिझकना न हरगिज़ मचलना॥


इधर तोड़ना बन्द सब खानमां के,


उधर बाप बन जाना सारे जहां के ॥


किया जिसने संन्यास का रुतबा आला,


दयानन्द स्वामी तिरा बोल बाला॥


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