श्रीयुत सुन्दरलाल जी बी०ए०

श्रीयुत सुन्दरलाल जी बी०ए०


(आत्मकथा)


       "जेल के कर्मचारियों का व्यवहार जब्बलपुर, वर्धा और खण्डवा तीनों जगह मेरे साथ बहुत अच्छा रहा। मुझे किसी की कोई शिकायत नहीं है। हां, स्वास्थ्य खण्डवा जेल में अभी तक सर्वथा सन्तोषजनक नहीं रहा। २९ मई को मैं वहां आया था उस दिन मेरा वजन १०५ पौंड था। एक सप्ताह मुझ से कोई काम नहीं लिया गया। ६ जून को मेरा वजन १०६ पौंड हो गया। उस दिन से मुझे सन बटने को दिया गयायही काम मैं अभी तक कर रहा हूं। एक सेर सन रोज बटना पड़ता हैकाम आसान नहीं। दिन भर की पूरी मेहनत है। आरम्भ में उंगलियों में खूब दर्द हुआ। नीले दाग पड़ गये थे किन्तु अब बहुत कम हैंकेवल बाये अंगूठे में एक अजीब तरह की तकलीफ होती रहती है और थोड़ा-थोड़ा दर्द और उंगलियों में भी रहता है। फिर भी मैंने अब काम सीख लिया है। पहले का-सा कष्ट नहीं रहा। अब मैं अपना रोज का काम पूरा कर लेता हूं। बल्कि कभी-कभी कुछ अधिक भी कर लेता हूँ। वजन ६ जून से अब तक हर सप्ताह बराबर कुछ न कुछ कम होता जा रहा है। अब मेरा वजन पूरा १०० पौंड है। मुझे हृदय रोग (Dialatation of the heart) है जो कभी कभी आज कल भी कष्ट दिया करता है। इसके अतिरिक्त मैं दो बार राजयक्ष्मा (Consumption) का मरीज रह चुका हूं। एक १९१२ में और दूसरे १९१७-१८ में। ऐसी हालत में यह गजब का खटना और कमजोरी का बढ़ना कभी-कभी कुछ चिन्तित जरूर कर देता है किन्तु विशेषकर जब कि और कोई तकलीफ मुझे मालूम नहीं होती। अभी तक उचित यही समझता हूं कि इस मामले में बिल्कुल सुपरिण्टेण्डेण्ट जेल के ऊपर छोड़ दूं जो एक अच्छे डाक्टर भी हैं और विश्वास रखू कि वे जो कुछ मेरे स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम समझेंगे, वही करेंगे। अभी तक मैं ऐसा ही कर रहा हूं। भोजन के लिए आधा सेर दूध रोज और दोनों समय दाल, रोटी चावल मिलते हैं। दोनों समय स्नान करने की और थोड़ा बहुत बारक से निकल अहाते में टहल लेने की भी इजाजत है और सब तरह से अच्छा हूं। जितने पत्र मेरे नाम के जेल में आते हैं वे दफ्तर में जमा होते रहते हैं और महीने में एक बार मुझे दे दिये जाते हैं। महीने में एक बार ही मुझे पत्र लिखने की इजाजत है और एक बार ही मुलाकात कीफुरसत के समय मुझे पुस्तकें पढ़ने की इजाजत है और इस इजाज़त का मैं पूरा-पूरा प्रयोग करता हूँ। पांच किताबें खत्म कर चुका हूँयह सब शरीर और मन के क्षेत्र की बातें हैं। सच्ची जागृति आत्मा पर इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। वजन के घट जाने पर भी मेरा हृदय वैसा ही सत्यता, श्रद्धा और प्रेम से भरा हुआ है। और मानव कल्याण की वेदी पर बलि के लिए उछल पड़ता है। जीवन की डोरी के कट जाने का मुझे भय प्रतीत नहीं होता और लोहे के बड़े-बड़े सीखचों और काली ऊंची दीवारों के अन्दर भी मैं अपने को स्वतन्त्र समझता हूं। मुझे अकसर यही महसूस होता है कि इन सींखचों और दीवारों के बाहर फिरने वाले अनेक मनुष्य अपने को आजाद समझते हुए भी वास्तव में कैद हैं जिन्होंने अपनी आत्माओं को सोने की तथा अन्य अनेक प्रकार की जंजीरों से जकड़ रखा है। इन दीवारों के भीतर रहते हए भी मेरी आत्मा सच्चे अर्थों में आजाद है। इससे अधिक कछ नहीं लिख सकता।"


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