श्रद्धा का केन्द्र
श्रद्धा का केन्द्र
हमारे भारत वर्ष में सदा से यह वेदवाणी ग जती रही है कि एक ही मूलतत्त्व है जिसे विविध नामों से गाया और बखाना जाता रहा है-एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । वही अपनी शक्ति से अनेक रूप धारण करता है-इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते । गुरु नानक देव ने अपने अनुभव से इस देश की मिट्टी से उद्भूत इन विचारों को समझ- बूझ कर प्रामाणिक माना था। उनकी यह मान्यता थी कि कर्मभूमि भारतवर्ष में कितने ही सिद्ध-पुरुषों ने अनेक तरह से उपदेश दिए हैं; पर सबका सार यही है कि सारे संसार में पूरी तरह से राम रमा हुआ है । वैदिक परंपरा के अनुसार सारे संसार में रमे हुए परम-प्रात्म-तत्त्व को इन्द्र कहा गया है। उसी को मध्यकाल में राम (रमण करने वाला) नाम दिया गया है। विश्वास और आस्था के धनी गुरु नानक ने तो स्पष्ट कह दिया है कि जिसके मन में राम रमा है न तो वह मरता है, न किसी के द्वारा ठगा जाता है :
ना ओहि मरहि न ठागै जाहि।
जिनके राम बस मन माँहि ॥
इसी को वे निरंकार या अकाल पुरुष कहते हैं। अकाल पुरुष की आराधना को सर्वोपरि सार मान कर वे कहते हैं कि सृष्टि की रचना करने वाला जगदीश है भी और रहेगा भी; न कभी नष्ट हुआ है, न होगावह अनादि-अनन्त पिता युग-युग में एक ही स्वरूप में रहता है। वही ज्ञय है, वही ध्येय है । उसका गुणगान करने वाले निहाल हो जाते हैं।
गुरु नानक के अनुसार उस अक्षय पुरुष का नाम ही बखानने योग्य है। उसके गुण ही गाने योग्य है। उसकी महिमा ही धारण करने योग्य है । उसके सत्य नाम की भख जगाई जाए। उसके नाम की बड़ाई इसमें है कि सब उसको स्मरण करते-करते थक गए; पर कोई उसकी क़ीमत नहीं प्रांक सका । वह न घट सकता है, न बढ़ सकता है। वह कभी नष्ट होने वाला भा नहा है, जिसस शोक करना पड़े। सब प्राणियों के लिए वह सब प्रकार के भोगों का जनक है। ऐसे गुण और किसी में नहीं हैं । न कोई वैसा हा है, न कभी होगा।
असीम श्रद्धा के धनी भक्त की गुरु नानक ने बहुत् प्रशंसा की हैउनके मत में ऐसा हरि-जन बड़ा भाग्यशाली है जो हरि नाम का प्यासा है, हरि नाम का भूखा है। जिसने हरि के नाम का रस नहीं चखा, वह भाग्यहीन है । जो अपना उद्धार चाहे वह माधव की संगति करे। वह पुरुष निरञ्जन अग्रणी है, अगम्य है, अपार है । वही सबको सिरजने वाला है। वह पर ब्रह्म है, बे-अंत है । वह आदि पुरुष है, अपरम्पार है। ऐसा कोई दूसरा नहीं है। वह जिस पर कृपा करता है वही नाम रूपी रत्न-धन पाता है।
जितनी उसमें श्रद्धा होगी उतना ही कल्याण होगा। वह तो दरियाव की तरह है। सब उसी में समाया हुआ है । उसको छोड़ कर दूसरा कोई है ही नहीं। वही दाता है, वही भोक्ता है । सारा संसार उसी का खेल है । उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। यह मनुष्य देह मिला है । गोविन्द से मिलने का यही अवसर है। सूरज एक हैऋतुएं अनेक हो सकती हैं। वैसे ही कर्ता एक ही है अनेक वेषों में-
सूरजु एको रुति अनेक
नानक करते के केते वेख?