शिवभक्त जानें ज्योतिर्लिंगों का सच


           जगत् में ईश्वर, जीव, प्रकृति ३ अनादि सत्ताएँ हैं, यह विख्यात है। यह ख्याति-प्रसिद्धि वेदादि शास्त्रों से सम्पुष्ट एवं सुप्रमाणित है। इनमें ईश्वर जीव का उपास्य है, जीव उपासक है, भोक्ता है एवं प्रकृति भोग्य है, भोग की साधन है, यह भी वेदादि शास्त्रों का सत्य सार है।


            स्वस्ति दाता शिव ईश्वर- इस उपास्य ईश्वर के जिस प्रकार अनेक गुण, कर्म, स्वभाव हैं, वैसे ही इस ईश्वर के अनेक अभिधान (नाम) भी हैं। यह ईश्वर जहाँ महेश्वर, शम्भू, प्रभु, विभु, विष्णु आदि नामों से कहा जाता है, वहीं वह जगत्पिता, जगदाधार, शिव आदि भी कहा जाता है। ईश्वर के ये विशेषण 'आकुमारं यशः पाणिनेः' के सदृश सभी के मन मस्तिष्क में समाहित हैं। सभी इस जगदाधार ईश्वर से ही स्वस्ति, अविनाश, कल्याण की कामना करते हैं, वह ही इन्हें देता है। वेद में कहा है-


          तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
          पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्ते॥
                                            ऋ. १/८९/५।।


            अर्थात् वयम्-हम,=तम=उस, ईशानम=समस्त सृष्टि के स्रष्टा, ज्ञान-प्रदाता ईश्वर को, जगतः जंगम, चलायमान, तस्थुषः स्थावर जगत् के, पतिम=स्वमी ईश्वर को, धियं जिन्वम् बुद्धि, विवेक को बढ़ाने वाले ईश्वर को (जिवि .प्रीणनार्थाः),अवस=रक्षा हेतु, हूमह=स्तुति का केन्द्र बनाते हैं, आहूत करते हैं, यथा जिससे, पूषा पोषक परमेश्वर, न:=हमारे, वेदसाम्=विद्यादि धनों का, असत=देने वाला होवे, वृधे=वृद्धि के लिए, रक्षिता=रक्षा करने वाला, पाय:=पालन करने वाला, अदब्धः हिंसारहित, स्वस्तये कल्याण के लिए होवे l 


           मंत्र से स्पष्ट है कि ईश्वर चराचर सम्पूर्ण जगत् का पति: स्वामी, आधार, आश्रय है। ईश्वर ही सभी पदार्थ व स्वस्ति-कल्याण का प्रदाता है।


           एक ईश्वर अनेक स्वरूप-जगदाधार ईश्वर एक है, सर्वव्यापक, निराकार, अजर, अमर, नित्य आदि स्वरूपवाला है उपनिषद् का वचन है-


         य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद्वर्णाननेकान्निहितार्थों दधातिवि l
         चैति चान्ते विश्वमादौ स देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु।।
श्वेताश्वतर उपनिषद ४ । १।।


          अर्थात् यः=जो, एक:=अद्वितीय, अवर्णः=रंग, रूपरहित, निराकार, बहुधा बहुत प्रकार से, शक्तियोगातसामों द्वारा, अनेकान् वर्णान= अनेक रंग, रूप की आकृतियों को, निहितार्थ प्रयोजन सिद्ध करने के लिए, दधाति-पुष्ट करता है, बनाता है, च=और, अन्त: प्रलयकाल में, विश्वम- सब जगत् को, वि एति=संगृहीत करता है, समेटता है, च=और, आदा-सृष्टि के आदि में, सः देवः=वह ईश्वर ही विद्यमान रहता है, सः वह ईश्वर, नः=हमको, शुभया बुद्ध्या -शुभ बुद्धि से, संयुनक्त-संयुक्त करे


          उपनिषद् वचन में ईश्वर के निराकार, अद्वितीय स्वरूप का प्रतिपादन है।


          शिव ईश्वर- यही निराकार, अद्वितीय, सर्वपोषक, धारक, ईश्वर, शिव:-कल्याणकारी कहा जाता है। 


          सर्देवेभिरपां नपातं सखायं कृध्वं शिवो नो अस्तु।
ऋ.७/३४/१५।।


         अर्थात् सजूः= सभी पदार्थों में विद्यमान ईश्वर, देवेभिः= दिव्य सामों से, अपां नपातम= व्यापक, न टूटने वाली, सखायम्-हमारी मित्रता को, कृध्वम्-कर देवे, न: हमारे लिए, शिवः अस्त=कल्याणकारी होवे l 


           मंत्र में शिवः पद ईश्वर के लिए आया है। यह शिव ईश्वर जगत् के विभिन्न पदार्थ, बल, बुद्धि, सुख, शान्ति आदि प्रदान कर, हमारे लिये शिवः कल्याण प्रदान करता है। वेद-ज्ञान द्वारा अज्ञान नष्ट करता है, सूर्य, चन्द्र आदि भौतिक प्रकाश वाले पदार्थों द्वारा अन्धकार को दूर कर प्रकाश से युक्त करता है।


           शिव का अतिरञ्जित रूप शिवलिंगोपासना
            सुख शान्ति की अभिकांक्षा में अनुरक्त इस लोक में इस कल्याणकारी शिव ईश्वर की अति मान्यता व पूज्यता है। खेद की बात है! लोक की अति मान्यता व पूज्यता ने वेद, उपनिषद् आदि में निर्दिष्ट निराकार, कल्याणकारी शिव का स्वरूप ही बदल दिया। निराकार को साकार बना दिया, एक रात्रि ही अर्पण कर दी है, जो महाशिवरात्रि कही जाती है। इस रात्रि का मास फाल्गुन है, पक्ष कृष्ण व तिथि चतुर्दशी है। लोक विज्ञात इस शिव व शिवरात्रि पर्व के अतिरञ्जित अनेक महत्त्व पुराण व पुराणानुकूल ग्रन्थों में वर्णित हैं, उनमें ही साकार बनाये गये शिव की लिंगोपासना का भी प्रतिपादन है। इतना ही नहीं, शिव के लिंग ज्योतिर्लिंग कहे जाते हैं।


फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महत्त्व-
               शिव के नाम समर्पित महाशिवरात्रि पर्व के लोक में अनेक महत्त्व चर्चित हैं। यथा-
१. पौराणिक कोश के अनुसार प्रलय के पश्चात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में रुद्ररूपी शिव को फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को उत्पन्न किया  l 


२. शिवशंकर ने फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को तांडव नृत्य किया। अपने डमरू के निनाद से वायुमण्डल में ज्ञान, विज्ञान को भर दिया।


३. वायु एवं स्कन्ध पुराण के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिव पार्वती का शुभ विवाह हुआ l


शिवलिंग-ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति-  
              लोक में जो शिवलिंग ज्योतिर्लिंग कहे जाते हैं, उनकी भी प्रतिष्ठा कम नहीं है। जैसे महाशिवरात्रि के अनेक महत्त्व चर्चित हैं, वैसे ही शिवलिंग-ज्योतिर्लिंग के भी अनेक कथोपकथन हैं। यथा-


             १. पौराणिक कोश के मतानुसार ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अपने भौहों से एक देवता उत्पन्न किया, जिसका नाम रुद्र था। वह रुद्र अज, एकपाद्, अहिर्बुध्य, पिनाकी, उपराजित, त्र्यम्बक, महेश्वर, वृषाकपि, शम्भु, हरण एवं ईश्वर इन ११ प्रकारों वाला था। यह रुद्र ही शिव कहा गया। इस रुद्र के लिंग और योनि दो रूप हैं, ये रूप पुरुष व स्त्री स्वरूप हैं। शिव के ये रूप सृष्टि को बनाते व नष्ट करते हैं. अतएव शिव को महादेव कहा जाता है। (पौराणिक कोश, पृ. ४४७, मत्स्य पु. ४/५, वायु पु. अ. ३०।।)


            २. पुराणों में ज्योतिर्लिंग के उत्पत्ति विषयक अनेक कथानक हैं। यथा- विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हई। उत्पत्ति होने पर ब्रह्मा और विष्णु में झगड़ा हो गया, झगडे के निर्णयार्थ एक ज्योतिर्लिंग हुआ, वह ज्योतिर्लिंग ज्वाला से परिपूर्ण आदि, अन्त, मध्य से रहित था। ब्रह्मा ने कहा मुझे ज्योतिर्लिंग का अन्त ज्ञात है, मेरे ज्ञान का गवाह केतकी का फूल हैइस बहस में विष्णु बोले मुझे तो इसके आदि का ज्ञान नहीं। विष्णु के इस सत्य कथन से विष्णु बड़े कहलाये, ब्रह्मा छोटे l


           ३. ईशान संहिता के अनुसार ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को हुआ। वहाँ कहा है-



           शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः।


          अर्थात् कोटि सूर्यों की प्रभा के समान शिवलिंग रूप से ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ, अतः यह महाशिवरात्रि है। पौराणिक कोश,पृ. ४९५


            ४. पद्म पुराण का मानना है कि भृगु मुनि के शाप के कारण शिवशंकर की मूर्ति लिंग रूप हुई। पद्म पुराण के अनुसार भृगु मुनि ने यह शाप तब दिया, जब देव कौन हो-इस निश्चय के लिए ऋषिगण उनके गृह पर पहुँचे थे और शिवशंकर से मिलना चाहते थे, पर शिव के वाहन नन्दी ने मिलने नहीं दिया, क्योंकि उस समय शिव पार्वती के साथ एकान्तवास में थे। ऋषियों के, विशेषतः भृगु के कोप का परिणाम यह शिवलिंग है।


           ५. शिव पुराण में वर्णित दारुवन की अश्लील कथानुसार एक बार देवताओं की पत्नियाँ वन में वसन्तोत्सव मना रहीं थीं, उन्हें देख शंकर भोग विलास की मनीषा से नग्न होकर तांडव नृत्य करने लगे। तब देवताओं की पत्नियों के मध्य विद्यमान लक्ष्मी जी ने अपने पति विष्णु जी से शंकर के तांडव नृत्य की शिकायत की। शिकायत सुनकर विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिये, वे टूकडे जहाँ-जहाँ गिरे. वहाँवहाँ ज्योतिर्लिंग मन्दिर बन गये l 


विडम्बना-
            यह भी बड़ी विडम्बना है कि आज तो बिना ही टुकड़ों के यत्र तत्र, सर्वत्र शिवलिंग वाले शिवमन्दिर बनते जा रहे हैं।


१२ ज्योतिर्लिंगों के स्थान व नाम-


            शिवपुराण के अनुसार शिवलिंग ज्योतिर्लिंग कहे जाते हैं। इन ज्योतिर्लिंगों की संख्या १२ है। ज्योतिर्लिंग १२ स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं। उनके स्थान व नाम इस प्रकार हैं-
१. गुजरात पाटण, प्रभास स्थित-सोमनाथ।
२. कृष्णा नदी के समीप श्रीशैल, आन्ध्र स्थितमल्लिकार्जुन।
३. उज्जैन मध्यप्रदेश स्थित-महाकाल
४. नर्मदा तट मान्धाता ग्राम, उज्जैन मध्यप्रदेश स्थित- ओंकार या अम्बेश्वर।
५. देवघर, झारखण्ड स्थित-वैद्यनाथ।
६. पुणे निकट, डाकिनी, महाराष्ट्र स्थित-भीमेश्वर या भीमशंकर।
७.सेतु निकट, तमिलनाडु स्थित-रामेश्वर
८. द्वारिका, गुजरात स्थित-नागेश्वर या नागनाथ।
९. वाराणसी स्थित-विश्वेश्वर या विश्वनाथ।
१०. गोदावरी तट स्थित-त्र्यम्बकेश्वर।
११. हिमालय, उत्तरांचल स्थित-केदारेश्वर।
१२. एलोरा निकट, औरंगाबाद स्थित-घृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर।


पुराणोक्त उपासना के २ विभाग-


            पुराणोक्त शिव की उपासना के २ विभाग हैं। एक वह विभाग है जिसमें हस्त, पादयुक्त प्रतिकृति है, दूसरा विभाग वह है, जो हस्त पाद रहित लिंग रूप हैइस लिंग रूप की ही उपासना की जाती है।


           शिवलिंगोपासना के प्रामाण्य के लिए ऋग्वेद के मन्त्रों का भी सहारा लिया जाता है। वे मंत्र हैं-


           न यातव इन्द्र जजों न वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः।
           स शर्धदर्यो विष्णुस्य जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं नः।।
                                                         अ.७/२१/५।।


           स वाजं यातापदुष्पदा यन्त्स्व र्षाता परि षदत्सनिष्यन्।
           अनर्वा यच्छतदुरस्य वेदो नञ्छिश्नदेवाँ अभि वर्पसा भूत्।।

ऋ. १०/१९/३ ।।


            इन वेदमन्त्रों की भाँति उपनिषदों को भी शिवलिंगोपासना के प्रमाण में उपस्थापित किया जाता है। वे स्थल हैं


            यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदंसंचवि चैति सर्वम्।
            तमीशानं वरदं देवमीड्ये निचाय्येमांशान्तिमत्यन्तमेति।।
श्वेताश्वतर उप. ४/११ ।।


            यो योनि योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि यानीश्च सर्वाः ।
            ऋषि प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानंच पश्येत्।।
श्वेताश्वतर उप. ५/२।।


            इन मन्त्रों व उपनिषद् के पूर्वापर प्रकरणों द्वारा सुस्पष्ट हो जाता है कि वचनों में कहीं पर भी शिवलिंग उपासना का संकेत नहीं है। मन्त्रों में तो मा शिश्नदेवाः, नन् शिश्नदेवाः=कामी न आयें, कामियों को हटावें कहकर सुस्पष्ट ही लिंग-उपासना का निषेध है। उपनिषद् वचनों में भी जो योनिम् शब्द आये हैं, वे सम्पूर्ण उत्पत्ति कारण के वाचक हैं, लोक प्रसिद्ध जननेन्द्रिय लिंग के वाचक नहीं।


लिंगोपासना का प्रारम्भकाल
          यह लिंगोपासना महाभारत युद्ध के पश्चात् प्रारम्भ हुई। महाभारत में उपमन्यु के आख्यान में ही सर्वप्रथम शिवलिंगोपासना का वर्णन हुआ है, अन्यत्र नहीं। इस उपासना का उद्भावक वाममार्गीय सम्प्रदाय है, जो व्यभिचार प्रधान समुदाय है।


          लिंगोपासना रूप व्यभिचार कर्म के उद्भावकों का प्रज्ञापन करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है- इन वाममार्गी और शैवों ने संगति करके भग लिंग का स्थापन किया, जिसको जलाधारी और लिंग कहते हैं और उसकी पजा करने लगे। उन निर्लज्जों को तनिक भी लज्जा न आई कि यह पामरपन का काम हम क्यों करते हैं? -सत्यार्थप्रकाश एका. पृ. २८२।।


         महर्षि के इन वचनों से स्पष्ट है कि लिंगोपासना वाममार्गियों द्वारा चलाया गया वेद-विरुद्ध व्यभिचार कर्म है।


        भेड़चाल- लोक शिवलिंग रूप इन ज्योतिर्लिंगों की उपासना भेड़चाल में करता जा रहा है। इस उपासना का बखान भी लोक बड़ी श्रद्धा से करता है। अभी गत २०१६ के १७-२३ नवम्बर को आर.एस.एस. के अध्यक्ष अशोक सिंहल की प्रथम पुण्यतिथि पर आर्यसमाज सम्भाजी नगर औरंगाबाद द्वारा ऋग्वेद पारायण यज्ञ का आयोजन किया गया, जिसका ब्रह्मत्व मेरे द्वारा सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर मैंने औरंगाबाद का भ्रमण भी कियाऔरंगाबाद में एक शिवमन्दिर है, उसे दिखाने भी एक भ्राता हमारे साथ गये। उस शिव मन्दिर में प्रवेश करते हुए उन्होंने बताया, १२ ज्योतिर्लिंग हैं, उन १२ ज्योतिर्लिंगों में यह अन्तिम १२ वा ज्योतिर्लिंग है। मैंने उनकी बात सुनी, कहा कुछ नहीं किन्तु उनकी बात सुनकर एक विचार आया, यदि यह ज्योतिर्लिंग है तो प्रकाश क्यों नहीं? यहाँ मन्दिर में बिजली के साधन ट्यूबलाइट आदि क्यों लगे हैं?


ज्योतिः शब्दाथ-
         शिवभक्तो ! मन्दिर में जिसे ज्योतिर्लिंग बताया जा रहा है, वह तो अन्धकार का ढेर व पत्थर का टुकड़ा है, ज्योति नहींज्योति तो प्रकाश को कहते हैं। ज्योति शब्द का अर्थ प्रकाश, दीप्ति है। प्रकाश अर्थ वाचक ज्योतिः शब्द द्युत दीप्तौ धातु से धुतेरिसिन्नादेश्च जः, २/११२ उणादि सूत्र द्वारा इसिन् प्रत्यय व दकार को जकारादेश करके सिद्ध होता है। जिसकी व्युत्पत्ति है-


           द्योतते प्रकाशते, द्युत्यते प्रकाश्यते वा तत् ज्योतिः
           ईश्वरोऽग्निः सूर्यादिकम् वा।


           अर्थात् जो चमकता है या जिसके द्वारा चमकाया जाता है वह ज्योति कहा जाता है। ईश्वर, अग्नि और सूर्यादि पदार्थ प्रकाश वाले हैं व प्रकाशित करते हैं अत: ये ज्योतिः कहे जाते हैं।


           अग्नि परमेश्वर ज्योतिः ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम अग्नि है। ईश्वर अग्नि भी कहा जाता है मंत्र है-


इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
ऋ. १/१६४/४६ ।। 


          अर्थात् सः=वह, दिव्यः=प्रकाशमय, सुपर्णः=शोभनीय पालन-पोषण करने वाला, गरुत्मान-बड़ा परमात्मा है, अथ और उस, एकम् सत-एकाकी रूप सत्ता वाले ईश्वर को, विप्राः- विद्वान् जन, बहुधा विविध नामों से, वदन्ति कहते हैं, उसे, इन्द्रम् ऐश्वर्यशाली, मित्रम्-मित्ररूप, वरुणम्-वरणीय तथा उस, अग्निम्-अग्रणी, व्यापक परमात्मा को, यमम्-सर्वनियन्ता, मातरिश्वानम्-वायुरूप व्यापक, गतिशील, आहुः कहते हैं।


           मंत्र का भाव है कि ईश्वर के अनेक अभिधान है उन अभिधानों में अग्नि नाम भी ईश्वर का है।


           यह सर्वव्यापक अग्नि परमेश्वर ही ज्योति है, ज्योति देने वाला है। ज्योति-ज्ञानरूप प्रकाश एवं भौतिक प्रकाश करने वाला है। यजुर्वेद में कहा है-


अग्निोतियोतिरग्निः स्वाहा।। यजु. ३/९।


        अर्थात् अग्निः=अग्रणी परमेश्वर, (अग्निरिति पदनाम, निघ. ५/४, अनेन अग्नेर्गत्यर्थकत्वेन ज्ञानरूपत्वात् अग्नि: ईश्वरः), ज्योतिः ज्योतिरूप एवं वेदज्ञान, भौतिक अग्नि, बिजली, सूर्य आदि का प्रकाशक है, ज्योतिः= प्रकाशरूप एवं प्रकाशक परमेश्वर ही, अग्नि: अग्नि है, स्वाहा-यह सत्यवाणी है, कथन है (स्वाहा इति वाङ्नाम, निघ. १/११)।


           मंत्र का सार है कि अग्नि:= अग्रणी परमात्मा, ज्योतिः= प्रकाशस्वरूप है, प्रकाशित करने वाला है।


भौतिक अग्नि ज्योतिः भौतिक अग्नि भी ज्योति है। इस पक्ष में मंत्र का अर्थ है-


          अग्नि:= भौतिक अग्नि पदार्थ, (प्राप्तिहेतुत्वात् अग्निशब्देन भौतिकोऽर्थो गृह्यत), ज्योति: दीप्ति वाला है, ज्योति:-दीप्ति ही, अग्निः= अग्नि पदार्थ है, स्वाहा-यह सत्य कथन है (स्वाहा इति वाङ्नाम, निघ. १ ११)।


          मंत्र से स्पष्ट है , अग्निः = भौतिक अग्नि, ज्योतिः प्रकाश करता है। यह सर्वविदित है रात्रि में प्रकाश का साधन अग्नि ही होता है।


          सूर्य परमेश्वर ज्योतिः


          ईश्वर के अनेक नामों के मध्य सूय नाम भी है। अतः वेद में कहा है-


          सूर्यो ज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा। यजु. ३/९।।


          अर्थात् सूर्यः-प्रेरक, व्यापक जगदीश्वर (सूर्य इति पदनाम, निघ. ५/६, अनेन व्यवहारसिद्धः ईश्वरः सूर्यः), ज्योतिः वेदज्ञान द्वारा सकल विद्या-प्रकाशक, ज्ञापक है, यह ईश्वर ज्योतिः चराचर का प्रकाशक, सूर्यः सूर्य है, सर्वव्यापक है, चराचर का उत्पादक है, स्वाहा-यह सत्य कथन है।


         मंत्र से स्पष्ट है ईश्वर ज्योति: ज्ञान, दीप्ति व जगत् का प्रकाशक एवं सूर्यः=प्ररेक, व्यापक है l 


        भौतिक सूर्य ज्योतिः भौतिक सूर्य भी ज्योतिः कहा जाता है। इस पक्ष में मन्त्रार्थ है- सूर्य: सर्व पदार्थों का उत्पादक, प्राप्त कराने वाला सूर्य, ज्योति: दीप्ति वाला है, ज्योतिः=दीप्ति ही, सूर्यः= जड़, चेतन का प्रेरक उत्पादक सूर्य है स्वाहा-यह सत्य कथन है।


          मंत्र का भाव है सूर्य:- भौतिक सूर्य, ज्योति: प्रकाश आदि दीप्ति का साधन है, यह सूर्य आदिवस प्रकाश देता है, रात्रि के चन्द्र, तारा आदि को भी प्रकाशित करता है।


           वेद के इन मन्त्रों से अधिगत है कि ज्योतिः ईश्वर है एवं अग्नि व सूर्य ज्योति हैं। अग्निस्वरूप ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रकाशित ज्योति: दीप्ति अग्नि, सूर्य, विद्युत् आदि रूपों में होती है।


         ज्योतिवाच्य शतपथ वचन-
ईश्वरात्मा, जीवात्मा, सूर्य, अग्नि, विद्युत् आदि ज्योति हैं, अतएव शतपथ ब्राह्मण में कहा है-


१. ज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मज्योतिः।। शत. १४/७/१/६।।


         अर्थात यह पुरुष-ईश्वर व जीवात्मा ज्योति हैं, अतः आत्मज्योतिः कहे जाते हैं।


२. केशा रश्मयः,...केशीदं ज्योतिरुच्यते।। . निरु. १२/३/१४।।


         अर्थात केश रश्मियों को कहते हैं। उनसे युक्त केशी सर्य कहाता है। यह सूर्य ज्योति कहा गया है।


३. ज्योतिरिन्द्राग्नी। शत. १०/४/१/६


         अर्थात इन्द= विद्यत, अग्नि-भौतिक अग्नि ज्योति हैं l


         शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों से सुज्ञात है कि ईश्वर, सर्य आदि ज्योति हैं। ज्योति शब्द के वाच्य ज्ञान, प्रकाश, सामर्थ्य आदि देने वाले पदार्थ कहे जाते हैं, न कि प्रस्तर की बनी लिंगरूप आकृतियाँ।


सूर्य के १२ मास ज्योतिलिंग-
लोक-में जो १२ ज्योतिर्लिंग जाने जा रहे हैं, वे ज्योति के १२ प्रकार तो सूर्यरूप अग्नि के हैं, अन्य किसी पदार्थ के लिंग आदि के नहीं। सूर्य के इन १२ प्रकारों के द्योतक अनेक मन्त्र हैं। यथा-


द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि धामृतस्य। ऋ. १/१६४/११ ।।,


          अर्थात् द्यां परि-पृथिवी द्वारा प्रदक्षिणा करने पर सूर्य के चारों ओर, द्वादशारम-१२ महीनों वाले अरों से युक्त, ऋतस्य चक्रम् = संवत्सर का चक्र, वर्वति-निरन्तर घूमता है, नहि तजराय= यह संवत्सर चक्र कभी क्षीण नहीं होता l 


            ईश्वर पक्ष में मंत्र का अर्थ है द्यां परि-सूर्य के चारों ओर, द्वादशारम्-१२ महीनों वाले अरों से युक्त, ऋतस्य चक्रम संवत्सर काल चक्र को ईश्वर निरन्तर घुमाता है, तत्= परमेश्वर का यह संवत्सर चक्र, नहि जराय-क्षीण नहीं होता।


           इसी प्रकार अन्य मंत्र में कहा-
द्वादशप्रधयश्चक्रमेकम्।। ऋ. १/१६४/४८।।
           अर्थात् एकम् चक्रम- परमेश्वर संवत्सररूपी एक चक्र बनाता है, जिसमें, द्वादशप्रधयः=महीने रूप १२ परिधियाँ हैं।
         मंत्रों से सुस्पष्ट है कि १२ ज्योतियाँ १२ मासों की दीप्तियाँ कही जाती हैं, जिन्हें परमात्मा ने निर्मित किया है l ये १२ मास ही ज्योतिर्लिंग हैं। १२ मासों वाला सूर्य शिव है, कल्याणकारी है। १२ मासों की साम्यता से ही १२ शिवलिंग कल्पित किये गये हैं। यदि ये यथार्थ होते, तो शिव के निरन्तर मन्दिर नहीं बनाए जाते। आज जो बिना ही शिवलिंग के टुकड़ों के मन्दिर बनते जा रहे हैं, वे ज्ञापित करते हैं कि १२ शिवलिंगों की यह कोरी कल्पना है।


          शिवभक्त ! आँखें खोलें ! यथार्थ जानें। प्रलय के पश्चात सृष्टि के आदि में काल चक्र के ज्ञापक दीप्ति वाले सूर्य का ही उदय होता है। इस तथ्य से ज्योतिषशास्त्रविद् भलीभांति परिचित हैं। अहोरात्र के जो २४ होरा हैं, उनमें सर्वप्रथम सूर्य का ही प्रथम उदय दिखाया जाता है। शिवभक्त इन १२ ज्योतियों के यथार्थ रहस्य से अनभिज्ञ हैं, तभी तो अनादि तत्त्व शिव की लिंगरूप कल्पना करके लिंगोपासना में रत हैं। अन्यच्च ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भूत होने की कथा कहानी कहने में लगे हैं।


महर्षि दयानन्द का ज्योतिर्ज्ञान-  
          महर्षि दयानन्द अपूर्व योगी, ज्ञानी, ध्यानी थे। उन्होंने योगबल से अनादि ज्योतिरूप ईश्वर का स्वरूप जान लिया और पहचान लिया, साथ ही भौतिक अग्नि व सूर्य के १२ ज्योतिरूपों को भी जाना और पहचाना। दैनिक नित्यकर्म अग्निहोत्र के मध्य यजुर्वेदीय अग्निर्ज्योतिर्कोतिरग्निः स्वाहा। सूर्यो ज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा, मन्त्रों का विनियोग कर सभी के ज्ञान-चक्षु भी खोलेइन मन्त्रों की व्याख्या में महर्षि दयानन्द ने लिखा-


अग्निर्जगदीश्वरः स्वाहा ज्योतिः सर्वस्मै ददाति एवं भौतिकोऽग्निः सर्वप्रकाशकं ज्योतिर्ददाति।
सूर्यश्चराचरात्मा स्वाहा ज्योतिः सर्वात्मसु ज्ञानं ददाति। अयं सूर्यलोको ज्योतिर्दानं मूर्तद्रव्यप्रकाशनं च करोति। दया. भा. यजु. ३/९।।


         अर्थात् अग्नि जगदीश्वर स्वाहा-वेदवाणी व प्रकाशक पदार्थों का प्रकाश सबके लिये देता है एवं भौतिक अग्नि सब पदार्थों की प्रकाशक दीप्ति को देता है।


           सूर्यरूपी चराचर का आत्मा ईश्वर ज्योतिः सभी की आत्माओं में ज्ञान देता है। यह सूर्यलोक दीप्ति का दान करता है और मूर्त पदार्थों को प्रकाशित करता है।


           महर्षि दयानन्द ने ज्योति:-प्रकाश के आधार, अग्निः तेज के आधार अग्रणी परमेश्वर की प्राप्ति एवं ज्योतिः=भौतिक अग्नि व सूर्य रूप प्रकाश के साधनों का यह ज्ञान व सामर्थ्य तब प्राप्त किया था, जब उन्होंने सबकी भाँति अपने पूज्य पिता कर्षणलाल जी के आग्रह पर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का व्रत किया था, व्रत-देवता शिव का जो स्वरूप सुना था, उसे न पाकर अपना व्रत तोड़ा था और सच्चे शिव की खोज का संकल्प लिया था।


            लिंगोपासना व्यभिचार व वेद-विरुद्ध कर्म- 
         महर्षि दयानन्द व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र के बड़े परोपकारी हितैषी थे। उन्होंने शिवलिंगोपासना को निरर्थक कर्म विज्ञापित करते हुए जनमानस के हितार्थ लिखा है-


           शिवपुराण में बारह ज्योतिर्लिंग लिखे हैं। उसकी कथा सर्वथा असंभव है। नाम धरा है ज्योतिर्लिंग और जिनमें प्रकाश का लेश भी नहीं। रात्रि को बिना दीप किये लिंग भी अन्धेरे में नहीं दीखते। यह सब लीला पोप जी की है। सत्यार्थप्रकाश एकादश. पृ. ३२० ।।


          इस प्रकार महर्षि का सन्देश है कि शिवलिंगोपासना कल्पित, व्यभिचारपूर्ण कर्म है, जो सर्वथा त्याज्य है। शिवभक्त जागें, १२ ज्योतियों के सत्यस्वरूप ईश्वर, अग्नि व सूर्य आदि को जानें, पहचानें। ईश्वर की उपासना करें, अग्नि, सूर्य से उपयोग लें l 



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