सीता का पातिव्रत
सीता का पातिव्रत
सीता पति-परायणा देवी थी, उसके पूज्य पिता महाराज जनक ने भी उसके सामने यही आदर्श रखा था-
पतिव्रता महाभागा छायेवानुगता सदा।
अर्थात् 'हे राम यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी है, पतिव्रता और भाग्यशालिनी है। छाया की तरह हमेशा तुम्हारा साथ देने वाली है।'
भगवती सीता योग्य पिता की योग्य पुत्री थी। और सच में उसने अपने पिता की आशाओं को पूर्ण किया।
श्री राम ऋषियों की योजनानुसार पित्राज्ञा, को धारण कर जब वन गमन को समुद्यत हुए तो विवाह वेदी पर 'पत्नी त्वमसि धर्मणाऽहं' का व्रत लेने वाली सीता श्रीराम द्वारा अनेक विध भय दिखलाने, समझाये जाने और सास-श्वसुर सेवा आदि अनेक कर्तव्यों का स्मरण दिलाये जाने पर भी कहती हैं-
दोहा- प्राननाथ करुनायतन सुन्दर सुखद सुजान
तुम्ह बिन रघुकुल कुमुद विधु सुरपुर नरक समान॥
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई, प्रिय परिवार सुहृद समुदाई।
सासु ससुर गुरु सजन सुहाई, सुत सुन्दर सुशील सुखदाई॥
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते, पिय बिनु तियहिं तरनि ते ताते।
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी, तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी॥
और अन्त में वे कहती हैं-
राखिअ अबध जो अवधि लगि रहत न जानिय प्रान।
दीनिबन्धु सुन्दर सुखद सील सनेह निधान॥
सन्त तुलसी द्वारा प्रस्तुत इन अमर पंक्तियों में सीताजी की अगाध पति-निष्ठा के दर्शन हो रहे हैं-
सीताजी की इस पति-निष्ठा और पातिव्रत का और भी प्रोज्जवल रुप देखने को मिलता है जब वे पित्राज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीराम के वन जाने के निश्चय को सुनकर-'आपके पिताजी की यह आज्ञा अन्यायपूर्ण है, इसे मत स्वीकारिये।' आदि इस प्रकार के कोई विरोधी वचन न कह कर वन के कष्टों में सहयोग देकर पति के पितभक्ति के व्रत में सहायक बनने का विचार निम्न शब्दों में प्रकट करती हैं-
सबहिं भाँति पिय सेवा करिहौं। मारगजनित सकल श्रम हरिहौं।
पाँय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
सम महि तृन तरु पल्लव डासी। पाँय पलोटिहि सब निसिदासी।
बार-बार मृदु मूरति जोही। लागहि ताति वयारि न मोही॥
अशोक वाटिका में रावण द्वारा अनेक विध प्रलोभन और भय दिखाये जाने पर नारी कुल भूषण सीता कहती हैं-'राक्षसराज ! सिंह का भोजन श्वान क्या कभी पा सकता है? श्रीराम सिंहवत् हैं और तू श्वानवत्। अतः यह निन्द्य विचार तू त्याग दे।' पतिव्रता शिरोमणि सीता आप धन्य हैं !