सीमन्तोन्नयन संस्कार
सीमन्तोन्नयन संस्कार
मानव जीवन में संस्कारों का अति महत्व होने के कारण ही संस्कारी संतान में सब की अभिरुचि होती है। मानव में जन्म से पूर्व ही संस्कार डालने की प्राचीन परम्परा को अनवरत बनाए रखने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मनुष्य को बार बारसंस्कारित करने के लिए अपने अमर ग्रन्थ संस्कार विधि में सोलह संस्कारों की जो व्यवस्था की है तथा उपदेश किया है कि गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त कम से कम सोलह बार तो इसे स्मरण दिलाना ही चाहिये कि हे मनुष्य ! तूं ने अच्छा बनना है। इतना ही नहीं पूरे संसार को भी अच्छा बनाने का कर्तव्य समाज ने उसी के कन्धों पर ही डाला हैअतः उत्तम संस्कारों को ग्रहण करते हुए वह संसार के अन्य लोगों को भी सुपथ पर लाने के लिए कार्य करे, यह भी सुसंस्कारी होने का एक भाग है |
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जिन सोलह संस्कारों का विधान मानव जीवन में किया है , उनमें से तीन संस्कार जन्म से पूर्व गर्भा वस्था में होते हैं तथा शेष तेरह संस्कार जन्म के पश्चात् होते हैं । जो तीन संस्कार मानव के जन्म से पूर्व गर्भावस्था में होते हैं ,उनमें सीमन्तोन्नयन संस्कार तृतीय व गर्भावस्था में अन्तिम संस्कार हैइस संस्कारको सीमन्तोन्नयन संस्कार इस लिए कहते हैं क्योंकि यह ना है अर्थात् यह या में शिशु की अन्तिम सीमा का सरकार होता है विस्था की सीमा तथा जन्म की सीमा के मध्य का संस्कार होता है |
इससे पूर्व पुंसवन संस्कार में शारीरिक वृद्धि के अनुरूपः आगरकी कामना करते हुए गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य को पुष्टि देने की कामना व प्रयास किया गया है। यह पुष्टि तभी ही किसी उपयोग की होती है जब इस को दिशा देने वाला मरित ष्क भी सबल हो। सीमन्तोन्नयन संस्कार का उद्देश्य मनोवेगों को शक्ति प्रदान करना है। यह मानसिक विकास की कामना के लिए किया जाता है। अतः शारीरिक पुष्टि के पश्चात् गर्भस्थ शिशु की मानसिक पुष्टि ही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है|
सुश्रुत के अनुसार मानव का शिर पांच संधियों का केन्द्र स्थान है। यदि थोडी सी असावधानी हो जावे तथा किसी कारण गर्भस्थ शिशु पर चोट लगने से , पागलपन, डर या भय होने से अथवा चेष्टा विहीन होने से उस का स्वास्थ्य सही नहीं रहता तथा इस अवस्था में मृत्यु भी हो जाती है। सिर में जो पांच संधियां होती हैं, उनका केन्द्र स्थान होने से , उनका सीमा स्थान होने से उसे “ सीमन्त भी कहते हैं। क्यापि इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भस्थ शिशु की मनन प्रक्रिया बढाना होती है इसका मानसिक विकास करना होता है । सीमन्त मस्ति ष्क को ऊपर उठाना होता है। इसलिए इस नामकरण भी “सीमन्तोन्नयन" नाम से किया गया है। अतः उपयुवा व्याख्या के सन्दर्भ में सीमन्तोन्नयन सरकार से अभिप्रायः संस्कार,जिससे माता का ध्यान अपनी गर्भस्थ संतान के मानसिक के विकास में लगे।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कार विधि में पारिवारिक प्रेम का प्रदर्शन करने की विधि दी है। महर्षि का मानना है कि यदि परिवार में पति व पत्नि प्रेम पूर्वक व प्रसन्न रहेंगे तो , उनकी भावी सन्तान भी सब को प्रेम बांटने वाली तथा सदा प्रसन्नचित्त रहने वाली होगी। अतः इस अवसरपर परिवार के मुखिया पति व पत्नि सदा प्रेम बांटते हए सदा प्रसन्न मुद्रा में रहते हुए अपनी गर्भस्थ सन्तान के मानसिकविकास पर अपना ध्यान केन्द्रित किये रहें क्योंकि मानसिक विकास ही सभी उन्नतियों का आधार है। माता पिता अपनी सन्तान को जैसा बनाना चाहते हैं, ठीक वैसा व्यवहार उन्हें एक दूसरे से करना चाहिये तथा ठीक वैसा वातावरण अपने चारों और बनाना होगा । वैसी कथाएं सुनाना तथा वैसे चित्र अपने कमरे में लगाना भी इस कार्य के लिए सहयोगी होगा ! यही वह अवसर है जिसे कभी खोने नहीं देना चाहिये । यदि यह अवसरहाथ से निकल गया तो जन्म लेने के पश्चात् उसके पिछले संस्कारों को बदलना सम्भव न होगासभी अच्छे या बुरे वातावरण का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पडना अवश्यम्भावी है। अतः अपने आप को साफ सुधरेवातावरण में , साधु संगति में तथा वीरोचित्त कथाओं के श्रवण व दर्शन में लगाना ही उचित है। नारी की इस अवस्था को दोहद कहा जाता है क्यों कि गर्भवती का एक हृदय तो अपना होता है तथा दूसरा गर्भस्थ शिशु का , जिसके संचालन व निर्माण का कार्य भी उसे ही करना होता है। अतः वह इस समय दो हृदयों वाली होती हैइस अवसर पर बालक के हृदय के धडकन की आवाज भी सुनाई देने लगती है। इस समय माता से सन्तान जूडी होती है। अतः क रक्त से ही उसका पोषण हो रहा होता है। इस समय माता में आ का जागृति होती है। यह इच्छाएंसन्तान से ही सम्बन्धित अनक इच्छाओं की जागृति होती है| यह इच्छाए संतान से ही सम्बंधित होती हैं। इस अवस्था में ही नहीं, जब शिशजन आदि खाने की रहती है। हो रही है, जिसे पूरा या में ही नहीं , जब शिशु जन्म ले लेता है तथा मांकन पपीता है तब भी मां की अभिला षा चाक आदि खानेकी इसका कारण है कि उसमें कैल्श्यिम की कमी हो रही है करने के लिए वह ऐसी वस्तुएखाने लगती है। इस अव बच्चे दोनों को ही कैल्शियम की दवा देनी चाहिये।
चतर्थ माह में माता को अपनी गर्भस्थ सन्तान को अपने संस्कार देते हुए उसे पूर्व जन्म के संस्कारों से विमुख करना होता है। सन्तान के पूर्व जन्म के धुंधले संस्कार न केवल बालक को ही बल्कि उसकी गर्भवती माता को भी प्रभावित करने लगते हैं। यही वह अवसर होता है कि माता इस पर अपनी छाप अंकित करे। यदि इस समय माता अपने प्रबल संस्कार उस पर डालेगी तो इसके विगत संस्कारों की प्रबलता मन्द हो जावेगीअतः इस अवसर पर माता को चेष्टा पूर्वक वह सभी कथाएंसुननी चाहिये व वह सब दृश्य देखने चाहिये, जैसा वह अपनी भावी सन्तान को बनाना चाहती है। यह वही अवसर है जब वीर अभिमन्यु के समान गर्भ में शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। यह अवसर ऐसा है, जिसका सदुपयोग माता अपनी सन्तान के निर्माण के लिए कर सकती है। यही वह अवसर है जिसमें नव मानव का कार्य किया जा सकता हैधर्म परायण व देशभक्त , मातृ पितृ भक्त सन्तान बनाने का यह ही अवसर है। इसे खोना अपने आपको विपत्तियों में डालने के समान हैयह वैदिक संस्कृति ही है, जिसमें गर्भ से पूर्व ही संस्कारों से मानव के नव निर्माण की योजना बनाई गई है। विश्व की अन्य किसी भी संस्कृति में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है |
मानव निमोण का ही एक अन्य पक्ष भी इस सरकार इस संस्कार के अन्तिम चरण में किया जाता है। जब संस्कार विधि मे दर्शाई विधि के अनुसार संस्कार सम्पन्न हो जाता है तो अन्त में कुछ घी आदि बच जाते हैं। इन पदार्थों में गर्भवती महिला अपना प्रतिबिम्ब देखती है तथा इस अवसर पर पति पत्नी का एक वार्तालाप होता है। यह वार्तालाप ही गर्भस्थ सन्तान के भवि ष्य निर्माण का मुख्य साधन बनता है। महर्षि ने संस्कार विधि में इस अवसर पर पति के मुख से कहलवाया है कि हे सौभाव्ये ! तुम इसमें क्या देख रही हो। देखें इस अवसर पर महर्षि ने गर्भवती महिला के मुख से कितने सुन्दर शब्द निकलवाए हैं। यह शब्द ही गर्भस्थ शिशु के भावी जीवन का निर्माण करने वाले है।
पति के प्रश्न को सुनकर पत्नी उत्तर देती है कि इसमें मैं अपनी सन्तान को देख रही हूं, जो ऐसे ही पौष्टिकता प्राप्त कर रही है। मैं अपने घर में दुधारू पशुओं को देख रही हूँ, जिन के दूध के उपभोग स 'मेरी सन्तान का शारीरिक व मानसिक विकास होता हुआ मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इसके साथ ही साथ मैं इसमें अपने घर में उमड रहे सौभाग्य को देख रही हूं,जिस में धनैश्वर्ष की व र्षा हो रही है। इस के कारण सर्वत्र सुख ही सुख दिखाई दे रहा है। इतना ही नहीं इस घी खिचडी आदि में मैं अपने पति की लम्बी आय के भी दर्शन कर रही हूँमेरी सुसस्कारी सन्तान जब गौ आदि पशुओं के दूध व घी से तृप्त होगी व सब और सौभाग्य ही सौभाग्य होगा तो इसकी प्रसन्नता से हामारे परिजनों की लम्बी आयु निश्चित रूप से होगी , यह सब वह गर्भवती महिला इस समय देख रही है |
यह वह अवसर है कि माता की प्रत्येक गतिविधि का केन्द्र उसके गर्भ में पल रही सन्तान है। जब उसका रंग प्रति क्षण इसी प्रकार रंगा होगा तो निश्चित ही सीमन्तोन्नयन संस्कार का उद्देश्य पूर्ण हो रहा होगा । इस संस्कार का उद्देश्य माता के मन व मस्ति ष्क को इन विचारों से भर देना है कि जिससे उसे प्रति क्षण अपनी प्रत्येक गतिविधि में अपनी सन्तान का सुख दिखाई दे ,प्रत्येक क्षण दुधारू पशुओं के दर्शन हों ताकि उसके दूध आदि से परिवार व गर्भस्थ सन्तान को पुष्टि मिलती रहे । सर्वत्र उसे सौभाग्य दिखाई दे । धन ऐश्वर्ष दिखाई दे। इसके उपभोग से भावी सन्तान व परिवार की समृद्धि की वृद्धि हो सके तथा पति व परिजनों की दीर्घायु की प्रतिक्षण इच्छा हो तो निश्चित ही उसके गर्भ में पल रही सन्तान शिव संकल्प वाली होगी | हृष्ट पुष्ट होगी , मननशील व दृढ संकल्प होगी। जब सन्तान ऐसी आज्ञाकारी व सुखकारी होगी तो पूरा परिवार सुखी होगा। उसका नाम दूर दूर तक पहँच जावेगा । इस प्रसिद्धि के कारण परिवार के सदस्यों की प्रसन्नता ही उनकी लम्बी आयु का कारण बनेगी तथा सीमन्तोन्नयन संस्कार के करने का उद्देश्य सफल होगा।