सत्संग और दान शीलता
सत्संग और दान शीलता
समागत अतिथियों और विद्वान महात्माओं का सत्संग लाम तथा दानशीलता वैदिक स्वर्ग के अनिवार्य अंग हैं, ये दोनों। यज्ञ के तीन भाग हैं१- देव पूजा =विद्वानों का सत्कार। २- संगति करण =विद्वानों एवं महात्माओं की संगति तथा ३- दान =दु:खी और दीन को दान तथा विद्वानों और महात्माओं को सश्रद्ध दक्षिणा प्रदान करनाइन तीनों को मिलाकर ही यज्ञ पूर्ण होता है।
प्रत्येक सद्गृहस्थ को चाहिए कि सत्संग के किसी अवसर को यथा सम्भव छोड़ें नहीं यहाँ तक कि देशाटन का भी संत्सग लाभ लें। सन्त कबीर ने लिखा है-
एक घड़ी आधी घड़ी आधे में पुनि आध |
कबिरा संगति साधु की हरै कोटि अपराध॥
निश्चय ही सत्संगति अनेकों अपराधों से बचा लेती हैध्यान रहे किये हुए पाप के फल से नहीं।) सत्संग की महिमा मा महात्मा तुलसीदास का निम्न दोहा तो प्रसिद्ध ही है-
कोटि स्वर्ग अपवर्ग मुख थरिय तुला एक अंग।
सकहिं न सकल ताहि मिलि जो सुख लव सत्वसंग ।।