संसार का पहला शब्दकोश है - वेद
ऐतिहासिक सर्वेक्षणों, पुरातात्त्विक प्रमाणों तथा भाषाशास्त्रीय विवेचनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि अपौरुषेय वेद भाषाबद्ध वाङ्मय में संसार का प्राचीनतम सार्वभौम ग्रंथ है । इसकी उम्र को आँकने के लिए कतिपय पौर्विक-पाश्चात्य मनीषी सैकड़ों वर्षों से सतत प्रयत्न करते आ रहे है । परन्तु कोई भी मनीषी विचारक इस कालजयी वेद के रचना-काल को इदमित्थं निश्चित नहीं कर सका । यह पूर्ववत् अज्ञात एवं रहस्य बना हुआ है । वेदज्ञ मि० मौरिस फिलिप ने अपनी पुस्तक 'टीचिंग आफ दि वेदाज़' में स्पष्ट लिखा है कि “वेद भारत की ही नहीं अपितु समस्त संसार की सबसे प्राचीन सनातन धर्म पुस्तक है । संसार की सभ्यता का आदिम–स्रोत वेद है क्योंकि वेद ईश्वरीय और अपौरूषेय है ।'' "पुन: जर्मनी के मान्यवर प्रो० मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक India What can it Teach us, Page - 118 में लिखा है कि "वेदों को हम इसलिए आदिसृष्टि से कह सकते हैं कि उनसे पूर्व का कोई अन्य लिखित चिन्ह नहीं मिलता परंतु वेद के भीतर जो भाषा, देवमाला, धर्म और अध्यात्मविद्या का ज्ञान हमें मिलता है वह हमारे सामने इतनी प्राचीनता का दृश्य दिखलाता है कि कोई भी मनुष्य इस प्राचीनता को वर्षों की संख्या में नहीं ला सकता । कतिपय चित्रलेख, गुहालेख, ताम्रपत्र आदि भी वेद से अर्वाचीन ही है । उन्हें वेद से प्राचीनतम मानने की प्रवृत्ति अनेकशः दिखाई पड़ती है परंतु वह भाषा वैज्ञानिक, पुरातात्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मान्य नहीं है ।'' स्वामी विवेकानंद ने उद्घोषित किया है कि “वेद स्वत: प्रमाण है, क्योंकि वेद अनादि, अनंत है, वेद ईश्वरीय ज्ञानराशि है। वेद कभी नहीं लिखे गए, न कभी सृष्ट हुए, वे अनादिकाल से वर्तमान है । जैसे सृष्टि अनादि और अनंत है वैसे ही ईश्वर का ज्ञान भी ,यह ईश्वरीय ज्ञान ही वेद है।'' पुनश्च वेदों की गरिमा स्वीकारते हुए अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने यह उद्गार प्रकट किया है कि “वेद स्वतः प्रमाण है । सभ्यता की बुनियाद में भारत ने जो शिला रखी वह वेद ही है जिनमें दिव्यज्योति से युक्त परिलक्षित सृष्टि के नियम और उसकी व्यवस्था का प्रकार समन्वित है जिनकी युग-युगांतर पर्यंत लोगों के लाभार्थ एक विशेष भाषा में अभिव्यक्ति की गई है। यह ज्ञान हमें मौखिक परंपरा द्वारा प्राप्त हुआ है और इसकी व्यवस्था इतनी बारीकी और सुंदरता से की गई है कि उसमें काट-छांट वा प्रक्षेप की गुंजाइश ही नही है। प्रारंभिक धर्म का यह सर्वोत्कृष्ट कीर्तिस्तंभ ऋग्वेद है जिसमें पुरातत्व के कोई चिह्न नही है। जिसका न कोई मठ है और न मंदिर है, न कोई सम्प्रदाय या पंथ है, न कोई संस्थापक और न वस्तुत: जिसका कोई इतिहास हैजो हिंदू धर्मशास्त्र के सिद्धांतों एवं आदर्शो का निरूपण करता है और जिसमें हजारों मंत्र है।'
वस्तुत: वेद विश्व साहित्य में प्राचीनतम नैसर्गिक अमर काव्य है। यह हमारे लिए अतुलित ज्ञान - सम्पति का दिव्य आगार है । इसकी दिव्य ऋचाएँ अर्थगांभीर्य से परिपूर्ण है । तभी तो वेदज्ञ प्रो० मैक्समूलर महोदय वेदों की महिमा के गीत गाते हए मुक्तकंठ से कहते हैं- "किसी भी भाषा के ग्रंथ ने जो काम नहीं किया वह वेदों ने संसार के इतिहास में किया है । जिन्हें अपने और अपने पूर्वजों का अभिमान है, जिन्हें बौद्धिक विकास की इच्छा है, उन सबको वेदी का अभ्यास करना नितांत आवश्यक है ।'' इस दृष्टि से वेदों का महत्व सर्वोपरि है । ऋग्वेदादि संहिताओं की विशद विशेषताओं का उल्लेख करना यहाँ अभीष्ट नही है , किंतु यह बात उल्लेखनीय है कि इन संहिताओं के अनेक स्थल शब्दकोश की दृष्टि से महाघ महत्व के हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेद के सूक्त ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कि इनमे शब्द-भण्डार ही सजा सजाया प्रस्तुत कर दिया गया हैइस विशेषता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शब्दकोश का प्राचीनतम रूप हमें ऋग्वेदादि संहिताओं में प्राप्त होता है विश्व का आदिग्रंथ ऋग्वेद में भी इस शब्द-भण्डार की कुछ झांकी कतिपय सूक्तों में हमें प्राप्त होती हैउदाहरण के लिए ऋग्वेद के दशम मंडल का यक्ष्मा-सूक्त (१० । १६३) द्रष्टव्य है। इसमें मानव शरीर-रचना से जुड़े अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो वेद-ऋषियों के शरीर विज्ञान संबंधी ज्ञान को प्रकट करता है। इसमें मानव शरीर के निम्नलिखित अंगों का वर्णन है:अक्षि, नासिका, कर्ण, छुबुक (चिबुक-ठोढ़ी), शीर्ण, मस्तिष्क, जिला ,ग्रीवा, उष्णिह, कीकस, अनूक्य, अंस, बाहु, आंत्र, गुदा, उरस्, हृदय, मतस्ना, यक्त (यकृत), प्लाशि, ऊरू, अष्टीवद्, पाणि, प्रपदा, श्रोणि, भासद, भंसस्, मेहन, वनंकरण, लोम, नख, पर्व ।'' इसका व्यवहार हमारे वेदकाल के ऋषि-मुनियों, मनीषियों और कवियों द्वारा किया जाता था। ऋग्वेद के इस सूक्त के ६ मंत्रों में मानव-शरीर के इतने अंगों का वर्णन मानों कोशकार की पद्धति पर दिए गए शब्दों का ही दूसरा ढंग है। इसी पद्धति पर यजुर्वेद के पच्चीसवें अध्याय के प्रथम नौ मंत्रों की एक विस्तृत सूची दी गई है जो इस प्रकार है:रद (दाँत), दंतमूल, बर्व, पक्ष्म, दष्ट्र, अग्रजिह्वा, तालु, हनु, आस्य, अण्ड, श्मश्र, भू, वर्त, वर्त्म, पक्ष्म, कनीनका, नासिका, प्राण, अपान, अधर, ओष्ट, सदुतर, प्रकाश, अनुकाश, मस्तिष्क. कर्ण. श्रोत, अधरकंठ, वेदनी, शुष्क, कंठ, मन्या, शीर्ण, स्तप. केश. स्वपसवह,शकनिसाद, शफ, स्यूर, अँघा,जाम्बील, अतिरुच, दोस्, असं, पक्ष, निपक्ष. दक्षिण-पाव, उत्तर-पार्श्व, स्कन्ध, प्रथम कीकसा, पुच्छ, भासद, श्रोणी, ऊरू, अल्गा, स्थूरा, कुष्ठा, वनिष्ठु, स्थूलगद, वृषण, शेष, रेतस्, पित्त, प्रदर, पायु, शकाण्ड, क्रोड, पाजस्य, जत्र, भसत, पुरीतत्, उदर्य, मतस्ना, वृक्क, प्लाशि, प्लीहन, क्लोम, ग्लो, हिरा, कुक्षि, उदर, भस्मन, नाभि, रस, यूषण, विघुड, उष्मण, वसा, अश्रु, दूषिका,असन्(असृक्), अंग,रुपत्वक्। इसी प्रकार की एक लंबी सूची अथर्वेद, २०/९६/१७-२३- में भी है । पुन: यजुर्वेद संहिता २७/४५ में अनेक प्रकार के वर्ष की सूची दी गई है, जो इस प्रकार है :- संवत्सर, इडावत्सर, इद्वत्सर और वत्सरयजुर्वेद २७/४५ में वर्ष के प्रमुख भाग को - उषस, अंहोरात्र, अर्धमास, मास और ऋतु कहा गया है । पुनः यजुर्वेद २२/३१ में बारह मासों के नाम इस प्रकार पठनीय है :- मधु, माधव, शुक्र, शूचि, नमस्, नमस्य, इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्य, तपस्, तपस्य ।" इस प्रकार ऋग्वेदादि संहिताओं के अध्ययन-अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि सर्वज्ञानयम वेद संसार का आदि शब्दकोश है और यह वैदिक संस्कृत भाषा की सबसे प्राचीनतम अमरकृति है . यह वैदिक संस्कृत भाषा, अनुमान है, लगभग १९६२९४११६ वर्ष पुरानी है । यह योगात्मक और संगीतात्मक भाषा है। यह व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार-विनियम की भाषा थी, साहित्यिक थी, ऋषि-मुनियों की भाषा थी । यह भाषा सभी सीमाओं को लांघकर विश्व फलक पर विचारविनियम का साधन बनकर निखिल विश्व की भावात्मक एकता, समता और मानवीय मूल्यों को स्थापित कर रही थी । वेद विज्ञानाचार्य डॉ० सत्यप्रकाशानंद सरस्वती ने लिखा है कि "यह बात निर्विवाद है कि प्राचीन मानवीय भाषा का जो स्वरूप वैदिक वाड.मय के रूप में इतने विस्तार से अब भी सुरक्षित है, उतना अन्य किसी उस भाषा का नहीं, जो अपने को उतना ही प्राचीन घोषित करने का अधिकार रखती है । वैदिक भाषा का शब्द-भण्डार भारत में ही नहीं, भारत से चलकर समस्त यूरोपीय देशों में श्चिम की ओर पहुँचा और एशिया के अनेक खंडों में भी । '' इससे यह स्पष्ट है कि संसार की २७९६ भाषाओं में वैदिक संस्कृत भाषा प्राचीनतम और ध्वनिवैज्ञानिक भाषा है । यह एक निर्विकल्प भाषा है । इसीलिए इसे मर्यादित तथा नियम-बद्व भाषा कहते हैं । भाषा के इस मर्यादा संस्कार, शब्दानुशासन और नियमित नियमचर्या का प्रभाव जीवन पर भी पड़ता है । उच्चारण से आचरण तक को वैदिक संस्कृत के भाषा-संस्कार ने प्रेरित-प्रभावित किया है इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज की आचरण-उच्छंखलता के युग में संस्कृत का 'अथ शब्दानुशासनम् सूत्र वस्तुतः अनुशासित करने वाला सूत्र है।
संपर्क - वेद सदन अमरपुर
पो.-पथरा
जिला-गोड्डा ८१४१३३
झारखंड
फो.-9162208005