संन्यासी की भिक्षा-प्रक्रिया


संन्यासी की भिक्षा-प्रक्रिया


      उपर्युक्त विवेचन में हम प्रकरणानुसार यह दिखा चुके हैं कि हर जन्म होने पर कुछ प्रक्रियाएँ सामान्य हैं, उनमें भिक्षा भी एक सामान्य प्रक्रिया है। मातृ-कुक्षि से जन्म प्राप्त शिशु सबसे बड़ा भिक्षुक है। इस दृष्टि से पशु-पक्षी-मात्र भिक्षु ही हैं। द्वितीय व तृतीय जन्म प्राप्तकर्ता स्नातक और संन्यासी भिक्षा की झोली अथवा पात्र लिये घूमते हैं, लेकिन प्रथम जन्म प्राप्तकर्ता हर प्राणिमात्र के शिशु ने अपने मुख को ही पात्र बनाया होता है। उसकी माता उसके मुख-पात्र में अपने हाथ से दुग्धादि भोज्य-पदार्थ डालती है। जब तक उसमें अन्न-ग्रहण की शक्ति नहीं होती तब तक उसकी माँ अपने आँचल में ले स्तन्यपान कराती है, चाहे वह ग्राम्य पशु हो अथवा आरण्य-पशु, शाकाहारी हो अथवा मांसाहारी। सबके मुखरूपी भिक्षापात्र में दूध डाला ही जाता है। फिर जब उसकी योग्यता आहार-ग्रहण की हो ही जाती है तब भी मुँह खोले आहार की माँग करता है, इसलिए उस संस्कार का नाम ही अन्नप्राशन है उस दिन से अन्न-ग्रहण तथा अन्न-दान की प्रक्रिया शुरू जाती है | उसका मुख-रूप भिक्षापात्र खुला ही रहता है और माता अपने स्नेहयुक्त हाथों से उसे ग्रास देता ही रहती है। यदि उसके भिक्षापात्र में समय पर ग्रास नहीं डाला तो वह रोकर इस बात की अभिव्यक्ति करता है कि मातर! भिक्षां देहि। माँ उसे आँचल में ले स्तन्यपान कराती है; वहाँ अपने हाथों से सुपाच्य ग्रास बना देती रहती है। यह प्रक्रिया सर्वथा वैसी ही होती है जैसे कि गाय-बछड़े के बीच। बछड़ा जैसे ही अम्ब कहकर अपनी माता को पुकारता है वैसे ही गौ माता रम्भाती है, खूटे से बँधे होने पर भी। वह भिक्षा की पुकार चलती रहती है। जैसे ही बछड़ा छूटा, माता के स्तनों से आ चिपटा और अपनी भूख मिटा ली| एक समय आता है कि शिशु के खुले हुए मुखपात्र में परिवार का कोई भी सदस्य, यहाँ तक कि सेवक उसके मुखपात्र में ग्रास डाल देता था। यहाँ लाभ अथवा अलाभ का प्रश्न ही नहीं। शिशु एकरस प्रसन्न रहता है।


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