संध्या, प्रार्थना, उपासना


संध्या, प्रार्थना, उपासना


संध्या-पूर्वां संध्यां जपन् तिष्ठन् नैशम् एन: व्धपोहति।


पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्।। (मनुस्मृति)


       अर्थ-(दो संध्या काल हैं-प्रातः और सायं, जब दिन और रात मिलते हैं) मनुष्य प्रात:काल संध्या में बैठकर रात के समय में आए मानसिक दोषों को दूर करे। और सायंकाल संध्या में बैठकर दिन में आए मानसिक दोषों को दूर करे। अर्थात् दोनों संध्या में बैठकर उससे पहले समय में आए मानसिक विकारों पर चिन्तन, मनन और पश्चात्ताप करके उन्हें आगे न आने देने का निश्चय करे।


       प्रार्थना--कोई वस्तु परमात्मा से मांगने से पहले उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसके अनुसार प्रयत्न करना आवश्यक है। विद्यार्थी परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह उसे परीक्षा में पास कर दे, तो विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह परीक्षा की तैयारी पूर्ण मेहनत से करे। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें तीक्ष्ण बुद्धि दे तो उसके "लिए हमें भी ऐसे यत्न करने चाहिये जिससे बुद्धि तीक्ष्ण हो-खान, पान, ब्रह्मचर्य का पालन, अच्छी-अच्छी पुस्तकों का पढ़ना आदि। यदि हम स्वयं प्रयत्न न करें और 'ईश्वर से मांगते रहें तो हमें कुछ न मिलेगा। जो परमेश्वर के सहारे आलसी बनकर बैठे रहते हैं, उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता क्योंकि ईश्वर की पुरुषार्थ (मेहनत) करने की आज्ञा हैईश्वर उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता हैजो बैठा हुआ गुड़, गुड़ कहता रहे, उसे गुड़ प्राप्त नहीं होता। जो उसके लिए प्रयास करता है उसे कभी न कभी गुड़ मिल ही जाता है।


       उपासना-जब ईश्वर की उपासना करना चाहे तब एकान्त शुद्ध स्थान पर जाकर आसन लगाकर आँखें बन्द करके बैठ जाए। सभी इन्द्रियों को बाहरी संसार से रोककर पहले प्राणायाम करे। फिर अपने मन को हृदय, नाभि या कण्ठ-किसी एक स्थान पर स्थिर करके अपने आत्मा और परमात्मा का चिन्तन कर परमात्मा में मग्न हो जाएऐसा करते रहने से 'आत्मा और अन्त:करण सभी पवित्र हो जाते हैं तथा मनुष्य की केवल सत्याचरण में ही रुचि हो जाती है। आत्मा का बल इतना बढ़ जाता है कि पहाड़ के समान मुसीबत आने पर भी मनुष्य घबराता नहीं और सहन कर लेता है।


       नोट :-अन्त:करण की चार वृत्तियाँ हैं-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। अन्त:करण की सुख दु:ख आदि के कारण को विचारने वाली वृत्ति का नाम मन, इन्द्रियों के द्वारा बाहरी वस्तुओं का ज्ञान निश्चय प्राप्त करने की वृत्ति का नाम बुद्धि, व्यापार आदि के सम्बन्ध में विचारने का नाम चित्त, है। अपनी सत्ता तथा अपने से संबंधित वस्तुओं को अपना जानता हुआ प्रकाश करता है इस वृत्ति का नाम अहंकार है।


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