सन्ध्या का सार

सन्ध्या का सार


सन्ध्या = आध्यात्मिक भोजन (आत्मा की खुराक)


         भूखे को भोजन, पिपासु को पानी, रोगी को औषध का आनन्द पूछना चाहिये। 'स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते' वह स्व-स्व अन्तःकरण का ही विषय है।


            प्रतिदिन, प्रतिघण्टा प्रतिक्षण मैले होते रहने वाले वस्त्र के लिए जैसे धोबी या साबुन की परमावश्यकता है, उसी प्रकार आत्मारूपी वस्त्र किस साबुन या धोबी से धुलेगा ?


             सन्ध्या परमात्मदेव के चिन्तन से । सो कैसे ? सर्वव्यापीसुख की वर्षा करने वाले-प्रभु का आश्रय लेने से।


             विषयों पर विजय, चञ्चल इन्द्रियों को सुमार्ग में लगा कर उन्हीं को मित्र बना लेना । सूर्य-चन्द्रादि विचित्र विविध सृष्टि के महान रचयिता व्यवस्थापक प्रभु से डर पाप से बचना उच्छृङ्खल। (दुलत्तियां चलाने वाले) दुर्निवार (बड़े यत्न से वश में होने वाले, दूर-दूर जाने वाले) मन-रूपी घोड़े को पूर्व-पश्चिम-उत्तरदक्षिण-नीचे और ऊपर उस महान् प्रभु का अन्त लेने में खुली दौड़-दौड़ा कर हंफा और थका देना।


        अब यह ठहरे कहाँ ? माता की गोद में ! अन्धकार से रहित, प्रकाश से परिपूर्ण, जातवेदः - दिव्यस्वरूप - बल के देनेवाले, विचित्र स्वरूप - चराचर के आत्मा के समीप !! क्या ऐसा महान् पिता का आश्रय लेने से किसी को भी भय रह सकता है ? कदापि नहीं । तो क्या वह दूर है ? नहीं । तो फिर ? हम दूर हैं, अपनी दूरी को दूर करें, और उपासक बनें।


            संसार भर के देश, जाति और मनुष्यों में पुण्य-पाप, अच्छाबुरा, नेकी-बदी, अवश्य ही मानी जाती है, और माननी पड़ेगी।


         अतः जगत् के प्राण, दुःख दूर करने वाले, शुद्धस्वरूप, परमात्म-देव के चिन्तन से हमारी पाप-अधर्म-अपवित्र स्वार्थबुद्धि दूर हो पुण्य-धर्म-पवित्र विश्वहित-बुद्धि बनी रहे।


         कल्याणकारी उस प्रभु को हम अपना सर्वस्व अर्पण कर देंपातः सायं इन्हीं बातों का चिन्तन करना 'सन्धया' है। बस इतना हो? हां, इतना आध्यात्मिक भोजन तो पच भी कठिनाई से ही सकेगा।


          अहा !!! कैसा सुन्दर साबुन - आत्मा का बढ़िया भोजन, यह सन्ध्या है । तो यह भूख मिटाने वाला भोजन अच्छा क्यों नहीं लगता? सच्ची भूख नहीं जब भी सच्ची भूख लग जायेगी, तभी इसका आनन्द अनुभव होगा। तभी ऋषि की इस 'वैदिक-सन्ध्या' के एक-एक शब्द का रहस्य स्वयं ही समझ में आता जाएगा । एक ही मन्त्र पर मनन करने में घण्टों बीत जायेंगे ।


            तो ऐसी भूख लगती क्यों नहीं ? अज्ञान से अनित्य को नित्य, शरीरादि अपवित्र को पवित्र, दुःखदायी कार्यों को सुख देनेवाले और अनात्मा को आत्मा समझ रहे हैं ।


            यह अविद्यान्धकार कैसे दूर हो? तत्वज्ञान से तत्वज्ञान बिना शास्त्र के स्वाध्याय के कहां !!! हां ठीक, इसी लिए स्वाध्याय मी ब्रह्मयज्ञ है।


           तो इसी से रोटी भी मिलेगी ? हां हां सो कैसे ? शान्तचित्त हो, शान्ति से बैठकर सोचेगा तभी रोटी मिलने का उपाय भी सूझेगा, नहीं तो हाय-हाय सचाने से भी रोटी कहीं से गिर नहीं पड़ेगी । ठीक, इसीलिए ऋषि ने लिखा -


              'नित्यकर्मों के फल शरीरसुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि'


           प्रभु कृपा करें - हमें सच्ची आध्यात्मिक भूख लगे और हम सन्ध्यारूपी आत्मिक-भोजन का आनन्द प्राप्त कर सकें !!           


                                                                                                    - ब्रह्मदत्त जिज्ञासु


 


 


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