समर्पण करो

समर्पण करो


इमे  हि ते ब्रह्मकृतः सुते सचा मधौ न मक्ष आसते।


 इन्द्रे कामं जरितारों वसूयवो रथे न पादमा दधुः।।


ऋषि :-वसिष्ठः ॥ देवता-इन्द्रः ॥ छन्दः-बृहती॥


विनय-हे इन्द्र ! सदा तेरे ज्ञान का निष्पादन करनेवाले, तेरे उद्देश्य से ब्रह्मयज्ञ करने वाले  ये भक्त लोग जगह-मक्षिकाएँ जहाँ मधु देख करती हैं, उसी तरह ये 'बदा से तेरे ज्ञान का, तेरे प्रेम का संग्रह करते रहते हैं। जैसे 'मधुकृत्' हाँ मध देखती हैं वही जा बैठती हैं और इस प्रकार सब कहीं से मध इकट्ठा सी तरह ये 'ब्रह्मकृत्' लोग जहाँ कोई विकसित ज्ञानपुष्प देखते हैं, जहाँ कहीं तेरे गुणों की सुगन्धि की सगन्धि पाते हैं वहीं जा पहुँचते हैं और उसमें समवेत होकर, तल्लीन होकर म का आस्वादन और संग्रहण करते हैं। प्रत्येक ब्रह्मचर्चा के स्थान से, प्रत्येक न-मण्डली से, प्रत्येक शुभ यज्ञ से, प्रत्येक सद्ग्रन्थ से और प्रत्येक चेतानेवाली ना से. अर्थात् जहाँ भी कहीं तेरे लिए 'सोम अभिषुत किया जाता है, उन सभी स्थलों से वे तल्लीन होकर चुपके से मधु को, सोमरस को, ज्ञानामृत को ग्रहण करते जाते हैं। इस प्रकार ये लोग ज्ञानधनी, भक्तशिरोमणि बनकर सब संसार के लिए भक्तिपूर्ण ज्ञान प्रदान करते हैं, संसारी प्यासों को ज्ञानामृत पिलाते हैं।


इन भक्तों में ऐसा सामर्थ्य इसलिए आ जाता है चूँकि ये सांसारिक कामनाओं से पीड़ित नहीं होतेये निष्काम होते हैं। ये अपनी सब कामनाएँ इन्द्र प्रभु में समर्पित कर चुके होते है। जैसे रथ में पैर रखकर, रथ में बैठकर हमें अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए स्वयं अपने प्रयत्न से नहीं चलना पड़ता, रथ हमें स्वयं पहुँचा देता है, उसी प्रकार ये तेरे स्तोता लाग अपनी कामना-मात्र को तुझ परमेश्वर में रखकर निश्चिन्त हो जाते हैं कि तुम मान् सर्वज्ञानी प्रभु स्वयमेव उनकी सब शुभ कामनाओं को ठीक तरह पूर्ण करोगेस्वयमेव अभीष्ट फल प्राप्त पैरों को समेटकर इस अभाष्ट फल प्राप्त कराओगेओह! इस इन्द्र-रथ का आश्रय पाकर, अपने कामनारूपी कर इस रथ पर बैठ जाने पर, कोई तृष्णा-व्याकुलता नहीं रहती, कोई चिन्ता जलन नहीं रहती कोई झंझट झंझट व परेशानी नही परेशानी नहीं रहती | 


 शब्दार्थ-मधौ न= जैसे  म मधु    मक्ष:=मधुमक्षिकाएँ  आसते= बैठती हैं वैसे    इमे  = ये      ते-तेरे     ब्रह्मकत = ज्ञान निष्पादन करनेवाले भक्त लोग     हि =  निश्चय से    सुते =  प्रत्येक सुत सोम परप्रत्येक ज्ञाननिष्पादन नष्पादन के स्थल पर सचा =  समवेत होकर, तन्मग्न होकर बैठते हैं और  जरितार=स्तोता, भक्त लोग  आदधः-रख देते हैं समर्पित कर देते हैं,        पादम्न  =पैर को रख देते हैं 


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