समदर्शी संन्यासी
समदर्शी संन्यासी
स्वामीजी के समय में हिन्दुओं में छूत-छात और ऊँच-नीच का भाव बहुत अधिक था। स्त्री और शूद्र को विद्या पढ़ने का अधिकार न था। स्वामीजी जन्म के कारण किसी को ऊँच या नीच नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में मनुष्य अपने अच्छे और बुरे कामों से ही ऊँचा या नीचा था।
अनूपशहर में स्वामीजी उपदेश कर रहे थे। उमेदा नाम का नाई महाराज के लिए भोजन का थाल लाया। स्वामीजी वहीं बैठे-बैठे उसे खाने लगे। वहाँ कुछ ब्राह्मण भी बैठे थे। वे चिल्ला उठे-ऐं, यह क्या कर रहे होयह तो नाई है! यह भ्रष्ट है। इसके हाथ का भोजन संन्यासी को नहीं खाना चाहिए।
स्वामीजी ने हँसकर कहा-रोटी तो गेहूँ की है। यह भी साफ-सुथरा है। रोटी के साथ नाई होने का क्या संबंध? भोजन पवित्र होना चाहिएफिर चाहे किसी के भी हाथ का हो, उसके खाने में कोई हानि नहीं।
रुड़की में स्वामीजी व्याख्यान दे रहे थे। एक मजहबी भी वहाँ आकर एक जगह बैठ गया और उपदेश सुनने लगा। मजहबी लोग अछूत समझे जाते हैं। किसी हिन्दू ने उसे बैठा देख दुत्कार कर कहा-तू नीच होकर ऊँची जगह बैठा है! उठ यहाँ से। वह बेचारा वहाँ से उठ कर दूसरी जगह जा बैठा। पर वहाँ से भी जन्माभिमानी लोगों ने उसे उठा दिया। जब स्वामीजी को पता लगा तो उन्होंने उनको डाँटकर कहा कि इस भक्त को उपदेश सुनने दो। जैसे सूर्य का प्रकाश, मेघों की वर्षा और वसन्त की वायु सबकी है, किसी एक की जागीर नहीं, वैसे ही वेद का ज्ञान सबका है। सब उसको सुन सकते हैं।
बम्बई की बात है। एक बंगाली महाशय स्वामीजी से बातचीत करने आये। कुछ देर बाद उन्होंने पीने के लिए पानी माँगा। उनकी लंबी दाढ़ी देखकर स्वामीजी के प्रेमियों ने उन्हें मुसलमान समझा। उन्होंने उनको दोनों में पानी दिया। इस पर स्वामीजी ने उन्हें डाँटा और कहा, “कोई किसी भी जाति का क्यों न हो उसका इस प्रकार निरादर करना ठीक नहींगिलास देने से क्या उसमें विष लग जाता? ऐसे ही करतूतों से इस आर्य जाति ने लाखों खोय, परन्तु पाया एक भी नहीं।"