सकाम कर्म बन्धन के हेतु


            मनुष्य योनि कर्म योनि है जो उत्तम कर्म करके बन्धनों से छूट जाती है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं, जो किए हुए कर्मों का फल भोगती हैं। यद्यपि मानव योनि में भी कर्म और भोग साथ-साथ चलते हैं, फिर भी प्रधानता कर्म की ही है। मनुष्य कुछ न कुछ कर्म अवश्य करता रहता है चाहे वे मानसिक ही क्यों न हों। इन कर्मों का फल संस्कार रूप में उसके चित्त में समाहित होता रहता है। कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इस विषय में बड़े- बड़े बुद्धिमान भी भ्रमित हो जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य को कर्म की गति का उचित ज्ञान होना कठिन है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव और वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल जो कर्म किये जाते हैं, वे वेद द्वारा अनुमोदित होने चाहिएं। जो कर्म शास्त्र द्वारा निषिद्ध हैं, वे विपरीत कर्मों की श्रेणी में आते हैंकई बार कर्म करना अशुभ कर्मों की कोटि में आ जाता है। जैसे सुना जाता है कि पृथ्वीराज से युद्ध करते समय मुहम्मद गौरी ने अपनी सेना के आगे गायों के बछड़े खड़े कर दिये जिन्हें देखकर पृथ्वीराज की सेना ने शस्त्र डाल दिए यह अकर्म में विकर्म हुआ। होना यह चाहिए था कि पहले गऊओं से निपटा जाता फिर दुश्मन से दो-दो हाथ करते। अर्जुन के सामने भीष्म-पितामह खड़े हैं, उन पर बाण चल रहे हैं, यह अकर्म हुआ परन्तु क्योंकि भीष्म पितामह अधर्म का पक्ष ले रहे थे। इस कारण भीष्मपितामह पर बाण चलाना न्यायोचित था। कई बार शुभ कर्म भी अशुभ बन जाता हैजैसे राष्ट्र की सीमा पर प्रहरी पहरा छोड़कर यज्ञ आदि या सन्ध्या उपासना करने लग जाता है तो यह शुभ कर्म भी अशुभ हुआ। क्योंकि उस समय राष्ट्र की रक्षा करना ही धर्म है। इस प्रकार मनुष्य जैसे भी कर्म करता है, कर्म, अकर्म, विकर्म वैसे ही संस्कार उसके कर्माशय में जड जाते हैं जो समस्त जीवन में होते रहते हैं । इन कर्मों से उत्पन्न हए संस्कार भी अनन्त हैं जिनसे चित्त चित्रित रहता जन्मान्तरों से संचित चले आआर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा, दयानन्दमठ, रोहतक रहे हैं । मृत्यु के समय प्रधान कर्माशय पूरे वेग से जाग उठता है। इन सब संस्कारों के अनुसार ही अगला जन्म, जाति, आयु मिलती है इस प्रकार के कर्मों को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटते हैं-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण


           जो कर्म अनन्त जन्मों में किए गए हैं और अभी तक उनके भोग भोगने की बारी नहीं आई है, केवल संस्कार रूप में कर्माशय में हैं उन्हें संचित कर्म कहते हैं।


           कर्माशय में भरे हुए अनन्त कर्मों से जिन थोड़े से कर्मों ने शरीर रूपी फल की उत्पत्ति कर दी है, अर्थात् जिनका फल इस जन्म में हो रहा है उनको प्रारब्ध कर्म कहते हैं।


           जिन नवीन कर्मों को संग्रह किया जाता है अर्थात् नवीन इच्छा से जो नवीन कर्म नवीन संस्कार उत्पन्न करते जाते हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। ये कर्म कुछ तो प्रारब्ध कर्मों के प्रधान कर्माशय के साथ मिलकर अपना फल देना आरम्भ कर देते हैं और कुछ संचित कर्मों के उपसर्जन कर्माशय के साथ मिल जाते हैं।


          वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कर्मों का फल मनुष्य को अवश्यमेव भोगना पड़ता है। ये क्षमा ही किया जाता, प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप, जप से इतना ही लाभ होता है कि चित्त के शुद्ध हो जाने पर व्यक्ति आगे पाप करने से बच जाता है तथा पुण्यकर्मों की अधिकता होने पर पापकर्म अभिभूत हो जाता है। यहां पर यह भी विचारणीय है कि क्या एक का किया हुआ कर्म फल दूसरे को भी भोगना पड़ता है अथवा करने वाला भोगता हैमनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। जैसे एक व्यक्ति शराब पीकर गाड़ी चलाता है और दूसरी गाड़ी के टक्कर मार देता है इसमें एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है क्या यह उनका पूर्व किया हुआ कर्म था अथवा अन्य के किए कर्म का फल अन्य को प्राप्त होता है।


          कर्म का प्रभाव और फल पृथक्-पृथक् है। एक व्यक्ति ने अग्नि में मिर्च डाल दी जिससे आसपास के सभी छींकने लगे यह उस कार्य का प्रभाव है जिसने यह कार्य किया है वह दण्ड का भागी हैइन सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि अन्य द्वारा किया गया कर्म भी कुछ सीमा तक दूसरों को प्रभावित करता है जिसका फल अच्छा या बुरा करने वाले को भी मिलता है। जहाँ तक अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, सुनामी आदि का प्रश्न है इसके कुछ प्रकोपों का कारण मानव द्वारा किया गया प्रकृति में असन्तुलन है। जिसके कारण पर्यावरण असन्तुलित होकर अनेक आपदाओं का कारण बन जाता हैकई बार ऐसा होता है कि सृष्टि को धारण करने वाली शक्ति भी पृथ्वी में परिवर्तन करती रहती हैभूगोल को जानने वाले कहते हैं कि जहां आज हिमालय पर्वत और राजस्थान है वहां पहले समुद्र लहराता था। समुद्र में भी कई द्वीप निकल रहे हैं। यह परमात्मा की माया है जिसके आगे किसी का वश नहीं चलता। कहाँ क्या करना है यह वही जानता हैजो सकाम कर्म हम करते हैं उसका सूक्ष्म संस्कार हमारे चित्त पर पड़ जाता है। इन्हीं संस्कारों से वासनाएं उत्पन्न होती हैं। ये वासनाएं ही अगले जन्म की हेतु बनती हैं। सांसारिक विषयों का चिन्तन करने से उनके प्रति आकर्षण हो जाता है और उन्हें प्राप्त करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो जाती है। जब इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती तब क्रोध आने लगता है, क्रोध में व्यक्ति अच्छा-बुरा भूल जाता है। उसका मोह भौतिक पदार्थों में बढ़ जाता है। मोह में स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति अर्थात् क्या उचित है क्या नहीं, इसका ज्ञान न रहने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि के भ्रष्ट हो जाने से सर्वनाश हो जाता है। इस प्रकार सकाम कर्म करने वालों की कामना का कभी अन्त नहीं हो पाताउसकी ऐषणाएं दिनोंदिन बढ़ जाती है वह संसार में लीन हो जाता है। वह प्रत्येक कार्यको करने में अपना स्वार्थ देखता हैवह आलसी और प्रमादी हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक कार्य करने में भी असमर्थ रहता है, इसलिए सकाम कर्म बन्धन के हेतु हैं।



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