सात्विक भोजन 


सात्विक भोजन 


       वैदिक स्वर्ग के निर्माण में सात्विक भोजन का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। परिवार के सभी सदस्य शान्त वृत्ति वाले, उदारमना, सहृदय, त्यागप्रिय, क्षमाशील, अक्रोधी (सहिष्णु) धैर्यवान, संयमी सदाचारी, सत्यनिष्ठ, करुणामय, स्वच्छता (पवित्रता) प्रिय, धीमान् (पवित्र बुद्धि वाले) विद्याप्रेमी, कृतज्ञ-स्वभावी और प्रभु भक्त हों. इसके लिये सबसे पहली आवश्यकता है-सात्विक आहारक्योंकि हमारा स्थूल आहार ही हमारे मन और बुद्धि का निर्माण करता है। जीवन की सात्विकता और पवित्रता के लिये मन और बुद्धि की सात्विकता अपेक्षित है। 'मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्ध मोक्षयोः' यदि यह ठीक है और उसके साथ ही 'जैसा खावे अन्न वैसा बने मन' तथा 'आहार शुद्धौ सत्व शुद्धी' यदि यह उक्तियां भी ठीक हैं, तब आहार शुद्धि की आवश्यकता स्पष्ट ही है।


      आज हमारे जीवन गिर रहे हैं, उसका बड़ा कारण है-हमारा खान-पान (आहार, विहार और व्यवहार) बिगड़ रहा है। दूध, फल और सात्विक अन्नों की जगह चाय, अण्डा, बिस्कुट माँस-मदिरा और मिर्च मसालेदार चाँट जैसे हमारा स्वाभाविक भोजन बनता जा रहा है। माँसाहार आदि के कारण ही आज के मनुष्य में क्रूरता, निर्दयता, अप्रेम, द्वेषबुद्धि, अधैर्य, सन्तुलनहीनता, इन्द्रिय-लोलुपता और दुराचार नित्यशः बढ़ता जा रहा हैराम और भरत के पावन भ्रात प्रेम की जगह आज औरंगजेबी वृत्ति (पिता और भाई के खून से सने राज्य को भोगने की. वृत्ति) का बढ़ना इसी तामसी और यी आहार के कारण से हैआज जिधर देखो मनुष्य का अहम् और स्वार्थ फंकार रहा है भाई-भाई के खून का प्यासा बना बैठा हैदाय ऋषि सन्तान की यह कैसी दयनीय दशा हो गई !


      भोजन मनुष्य के लिये है पर आज का मनुष्य भोजन के लिये ही जीवन जीता है। भोजन हमारे स्वास्थ्य के लिये है, पर वह स्वाद के लिये बनकर स्वास्थ्य नाश का कारण बन रहा है डाक्टरों की बढ़ती हुई भीड़ आहार-विज्ञान को भूल जाने के कारण ही हैमाता जब घरों में भोजन बनाती हैं तो वे आटे के साथ अपने हृदय के प्यार और ममत्व को भी गूंथती हैं यह प्यार मनुष्य की शक्ति का रहस्य बनता है। पर आज स्त्रियाँ फैशन की पुतली बनकर होटल का टोटल बढ़ाने में ही गौरव मानती हैं। हाथ पैर न हिलाकर केवल विलासमग्न रहने से आज स्त्रियाँ अनेक रोगों का शिकार बन रही हैं।


      आहार की अशुद्धि से संयमहीनता का बढ़ना स्वाभाविक ही है। असंयम से सन्तान वृद्धि होती है तो उसका इलाज ढूँढ़ा गया हैपरिवार नियोजन ! जिसके बदले में व्यभिचार की खुली छूट पाकर खोखला और जर्जरित जीवन, चिड़चिड़ा स्वभाव एवं असमय मृत्यु का उपहार ही पल्ले पड़ पाता है। श्रीराम ने सीता के साथ तेरह वर्ष तक दण्डकारण्य के एकान्त में रहकर और श्रीकृष्ण ने बारह वर्ष तक रुक्मिणी के साथ बदरी वन में रहकर संयम साधना का जो आदर्श प्रस्तुत किया उसका रहस्य सात्विक जीवनचर्या तथा सात्विक और प्राकृतिक आहार में ही छिपा है। खान-पान की अपवित्रता के कारण आज के युवक युवतियों को यह अशक्य और असम्भव दीख पड़ता हैअप्राकृतिक भोजन अप्राकृतिक जीवन के साथ ही सन्तति निरोध के अप्राकृतिक, घिनौने और घृणित साधनों का पर आज उच्च शिक्षा और सभ्यता का मापदण्ड माना जा रहा है। बिडम्बना है यह !


      हम मानते हैं कि भोजन की पवित्रता के नाम पर चौका और दूल्हे की लकीर में धर्म को समेट कर रख देना अतिवाद का शिकार होना और मिथ्याडम्बर है। धर्मध्वजियों ने 'शौच' के नाम पर जो अत्याचार तथाकथित अछुत और दलित समाज पर किये हैं वे रोमाञ्च खड़े करने वाले हैं। हम यह भी जानते हैं कि चौके की लकीर के अन्दर अनेकों पापी माँस-मछली भी खाते-पीते हैं। एक नम्बर के बेईमान और व्यापार -व्यवसाय में अपने भाइयों का गला काटकर चौके में भोजन करने वालों को देखकर उनके इस दम्भ पर दया आती है। तो यह सब आडम्बर व्यर्थ हैं, पर इसकी प्रतिक्रिया में जो उच्छृखलता आज आई है, वह तो और भी विनाशकारी है। क्लबों में शराब की बोतल उड़ाना, धूम्रपान द्वारा एक दूसरे की आँखें फोड़ना, बाजार में खड़े-खड़े जूता पहने गरम कचौड़ी, समौसा आदि चाट खाना, मेज कुर्सी पर जूते पहने-पहने भोजन करना और होटलों में जहाँ प्लेट, प्याले और चम्मच सब एक ही पानी में डाल दिये जाते हैं और इस प्रकार सभी छूठे रहते हैं उनमें भोजन करना, भोजन के समय रेडियो से अश्लील गीत सुनना यह सब क्रम मनुष्य को आज का सफेद पोश पिशाच बना रहा है।


      वैदिक स्वर्ग के सदस्य इस स्थिति में अपने को नहीं डालते। सत्यार्थ प्रकाश का दसवाँ समुल्लास (भक्ष्याऽभक्ष्य प्रकरण) उनके समक्ष रहता है। न वे आडम्बर में फंसते हैं और न उच्छंखलता को ही जीवन में स्थान देते है। विवाह संस्कार में मधुपर्क विधि में घत दधि और मधु को सर्वोत्तम सात्विक आहार माना है। इनसे वात पित्त और कफ विकारों का शमन होता है। (१) हाथ, मुँह और पॉव धोकर ईश्वर की कृपा के लिये इसका धन्यवाद और ध्यान करके प्रथम आचमन करें। अर्थात् भोजन के समय चित्त पूर्ण शान्त और मन प्रसन्न रहे (२) भोजन को हम मित्र दृष्टि से देखें, (३) अभक्ष्य पदार्थ को निकाल दें। (४) ऋतु अनुकुल भोजन करें। (4) अन्यों को खिलाकर 'यज्ञ प्रसाद' के रुप में खायें- आदि सभी शिक्षायें नव दम्पत्ति को 'मधुपर्क विधि' द्वारा दी गई हैं। 'केवलाघो भवति केवल दी' अकेला खाने वाले को वेद पापी मानता है। पवित्र वेदों की शिक्षा है- मिल बाँटकर खाओ।


      प्राचीन गुरुकुलों में न्याओं को आयुर्वेद और पाक विद्या का शिक्षण दिया जाता था। आज की तरह न तो सह-शिक्षा का पाप तब पलता था और न लड़के-लड़कियों को एक ही कोर्स पढ़ाने का सदोष क्रम चलता था। सात्विक पदार्थ यों प्रायः रसीले और स्वादिष्ट होते ही हैं पाक विद्या परायण देवियाँ उन्हें और भी सरस बना देती थींविवाह संस्कार की महत्व पूर्ण विधि-सप्तपदी' में छठा पग 'ऋतुभ्यः षट्पदी भव' कहकर बढ़ाया जाता है। यह ऋतु अनुकूल भोजन द्वारा घर के सभी सदस्यों को स्वस्थ, संयमी और सुखी बनाती हैं।


      भूलिये नहीं कि हमारे भोजन का, भोजन के स्थान का वातावरण, भोजन की विधि और भोजन के समय की चित्तवृत्ति का हमारे शरीर, मन और विचारों के निर्माण में बहुत बड़ा भाग हैअतः इस विषय पर उत्तमोत्तम ग्रन्थ (विशेषत: देवियों को) पढ़ने चाहिए।


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