सास-वधू व्यवहार


सास-वधू व्यवहार


          वैदिक स्वर्ग की यह एक अन्य मनोरम झाँकी देखियेआर्य राम के वन गमन का प्रसंग उपस्थित है। वे आज्ञार्थ माता के चरणों में उपस्थित हुए हैं। वहीं जानकी आ जाती हैं। सारी स्थिति जानकर सीता की बड़ी विचित्र दशा हो जाती है।


मञ्जु विलोचन मोचति वारी।


बोली देखि राम महतारी॥


         सीता की आँखों से अविरल अश्रू धारा बहते देख राम मातापुत्र वियोग के अपने कष्ट को भूल जाती हैं। सीता के प्रति उनकी करुणा जाग उठी है। वे कहती हैं-


दोहा-पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकूल भानु।


            पति रवि कुल कैरव विपिन विधि गुन रुप निधानु॥


         हृदय के सारे वात्सल्य को उँडेलती हुई माता कौशल्या आगे कहती हैं-


मैं पुनि पुत्र-वधू प्रिय पाई। रुप रासि गुन सील सुहाई।


नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥


        अर्थात् रुप राशि गुण खानि अपनी पुत्रवधू सीता को मैंने आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है। और अपने प्राण इसमें लगा रखे हैं।


कलप वेलि जिमि बहु विधि लाली। सींचि सनेह सलिलप्रतिपाली।


फूलतं फलत भयउ विधि वामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥


      अर्थात् इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से लाढ़चाव से स्नेह रुपी जल से सींचकर पाला है। अब इस लता के फलने-फूलने के समय विधाता वाम हो गया है। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा।


पलँग पीठ तजि गोद हिण्डोरा, सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।


जिअन मूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप वाति नहिं टारन कहऊँ।।


         सीता ने पलँग या फिर मेरी गोद रुपी हिण्डोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखामैं सदा सञ्जीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इसकी रक्षा करती रही हूँ। कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती।


सिय वन वसिहि तात केहि भाँति। चित्र लिखित कपि देखि डराती।


जौं सिय रहे भवन कह अम्बा। मो कहँ होइ बहुत अवलम्बा॥


         माता कौशल्या के इन शब्दों में एक आदर्श सास की सुन्दरतम झाँकी मिलती है। सीता का भी माता कौशल्या के चरणों में असीम अनुराग है। इसीलिये आर्य राम सीता को वन न जाने का आग्रह करते हुए एक हेतु यह भी देते हैं-


आयसु मोर सासु सेवकाई। सब विधि भामिन भवन भलाई।


एहि ते अधिक धर्म नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥


        सीता जी एक वैदिक नारी हैं। उन्होंने माता धरणि के चरणों में "मा वियौष्ट" (पति से अलग मत रहो) इस वैदिक ऋचा का पाठ किया है। अतः वे पति के संग वन जाने का आग्रह ही करती हैं किन्तु साथ ही सास-सेवा के महत्व को ही भली भाँति समझती हैं। अतः-


जागि सासु पग कह करि जोरी। छमहि देवि बड़ि अविनय मोरी।


दीन्ह प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि विधि मोर परमहित होई।


मैं पुनि समुझि देखि मनमाहीं। पतिवियोग सम दुःख कछुनाहीं॥


        अन्त में वन गमन की स्वीकृति मिलने पर सीता को पुनः सास सेवा का कर्त्तव्य स्मरण हो आता है। वे कहती हैं-


तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी।


सेवा समय देव वन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा॥


        आगे की पंक्तियाँ में राम माता का प्रेम पुनः अपनी पुत्र वधू के लिये उमड़ पड़ता है-


सुनि सयि वचन सासु अकुलानी। दसा कवन विधि कहौंबखानी।


बारहिं बार लाइ उर लीन्हीं। धरि धीरज सिख आसिष दीन्ही।


अचल होइ अहिवातु तुम्हाराजब लगि गंगयमुन जलधारा॥


सीतहिं सासु असीस सिख दीन्ह अनेक प्रकार।


चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥


         सासु-वधू व्यवहार का यह उत्कृष्टतम उदाहरण है। महाभारत में माता कुन्ती अपनी पुत्र वधू द्रोपदी को गार्हस्थ्य जीवन की जो शिक्षा देती है उसमें भी सास का हार्दिक प्यार छलक पड़ रहा है। अपनी सास के इसी उपकार का स्मरण कर द्रोपदी सत्यभामा को कहती है-


यथोपदेशं नियता वर्तमाना वरागंने।


स्वलंकृता सुप्रियता भर्तु : प्रियहिते रता :॥


ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्र्वा मे, कथिताः पुरा।


अनुतिष्ठामि तत्सर्वं नित्यकालमतन्द्रिता॥


             हे सुन्दरि ! शास्त्रों में स्त्रियों के लिए. जिन कर्त्तव्यों का उपदेश दिया गया है. उन सबका नियम पर्वक मैं पालन करती हूँ, अपने अंगों को वस्त्र और आभूषण आदि से अच्छी तरह अलंकृत करके पूरी सावधानी के साथ मैं अपने पतिदेव के प्रिय एवं हित साधन में सँलग्न रहती हूँ, और मेरी सास ने अपने परिवार के व्यक्तियों के साथ बर्ताव व्यवहार के योग्य जो    धर्म मुझे पहले बताये, उनका मैं निरन्तर आलस्य रहित होकर पालन करती हूँ।


नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरसू सत्यवादिनीम्।


स्वयं परिचराम्येतां पानाच्छादनभोजनैः॥


         वीर जनमी, सत्यवादिनी, आर्या कुन्ती देवी की, भोजन वस्त्र और जल आदि से मैं स्वयं सदा सेवा किया करती हूँ।


नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषण भोजनैः।


नापि परिवदे चाहं तां पृथा पृथिवीसमाम्॥


         वस्त्र, अलंकार और भोजन आदि में कभी मैं सास की अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती, पृथ्वी के समान क्षमाशील उन पृथादेबी (कुन्ती) की मैं कभी निन्दा नहीं करती


        सच में वधू एक नये अतिथि वा सदस्य के रुप में आपके परिवार में प्रवेश करती है। उसके लिये सब कुछ अंजाना और नया-नया होता हैयदि आरम्भ में ही सास सावधानी से अपनी आत्मीयता, सौजन्यता और हार्दिकता से अपनी पुत्र-वधू को अपनी पुत्री के रुप में अपना ले, हृदय से लगा ले, इतना ही नहीं वरन् अपनी पुत्री से भी अधिक प्यार दे तो यह निश्चित है कि पुत्रवधू भी अपनी सास को अपनी माता से भी अधिक आदर देना चाहेगी। निश्चय ही इसमें पहल सास की ओर से होनी चाहिये, वधू को सास की ओर से इतना अधिक प्यार मिले कि वह अपनी माता को भूल जावे और वधू अपनी सास की ऐसी निष्ठायुक्त सेवा करे कि वह उसे ही अपनी वास्तविक पुत्री मान ले।


 


 


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