सास की ओर से विशेष सावधानी


सास की ओर से विशेष सावधानी


            (१) प्रथम तो यह रहनी चाहिए कि वह भूलकर भी, वधू के माता - पितादि की निन्दा या लेन-देन सम्बन्धी हीनता पूर्ण चर्चा नहीं करे। 


            (२) दूसरे यह कि वधू अभी निरी बालिका या अल्हड़ ही तो है। उससे काम-काज में भूलें हो सकती हैं, नुकसान हो सकता । इस पर सास कभी उसे भला-बुरा न कहे। कम से कम अन्यों के सामने तो कभी टीका-टिप्पणी नहीं करे। हाँ, कुछ कहना आवश्यक हो तो एकान्त में अपनी पुत्री से भी अधिक प्यार देकर समझा दे।


           (३) यह स्मरणीय है कि प्रशंसा के दो शब्द सञ्जीवनी शक्ति का काम करते हैं। 'वचने किं दरिद्रता' के अनुसार सास या श्वसुर को वधू के उत्तम कार्यों की प्रशंसा करने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए। 


            (४) वधू की उत्तम रुचि-धार्मिक, सत्संग, संगीत, वाद्य, . प्रभु कीर्तन आदि को सदैव प्रोत्साहन देना चाहिए।


           (५) पारस्परिक सन्देह वृत्ति सर्वनाश का मूल है। इससे सदा ही बचना चाहिये। वेदों ने तो वधू को और भी गौरव प्रदान किया है।


सम्राजी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्रवां भव।


ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥


            पती अपनी पत्नी को सम्बोधित करके कहता है हे देवि ! तुम मेरे पिता जो तेरे श्वसुर हैं, उनमें प्रीति करके (उन्हें अपनी सु-सेवा और आज्ञा पालन से प्रसन्न करके) सम्राज्ञी बनोतुम मेरी माता को जो तुम्हारी सास हैं, उनमें प्रेमयुक्त होके उनके हृदय को जीतकर उनकी सम्राज्ञी बनो। जो मेरी बहिन और तुम्हारी ननद है उसमें भी प्रीति युक्त हो और मेरे भाई जो तुम्हारे देवर या ज्येष्ठ हैं उनमें प्रीति से प्रकाशमान होकर अधिकार युक्त बनो। अर्थात सबसे अविरोध पूर्वक प्रीति से वर्तो।


          पारिवारिक व्यवहार का यह 'स्वर्ण सूत्र' वेदमाता. ने दियावधू दासी नहीं, पैर की जूती या टहलनी नहीं वह गृह-स्वामिनी है, सम्राज्ञी है। किन्तु स्पष्ट है कि यह गौरवपूर्ण पद यह अधिकार कर्त्तव्य-पालन से ही सम्भव है। ऐसी कुल बधुर्ये (देवियाँ) हुई हैं जिन्होंने अपने सद्व्यवहार से बुरे से बुरे स्वभाव को बदल दिया है। उजड़े घरों को आबाद किया है और अपनी श्रम शीलता सहिष्णुता एवं बुद्धिमता से सभी के हृदय पर शासन करने में सफलता प्राप्त की है। प्रत्येक वधू को ऐसा वैदिक स्वर्ग लाने के लिये प्राणपण से यत्न करना चाहिए। एक क्षण के लिए भी यह भूलना नहीं चाहिए कि कर्त्तव्य की राह बड़ी कठोर है, यह सुख-शैया नहीं है। हाँ, अन्त सदैव सुखद है। कवि ने लिखा है-


'पथ भूल न जाना पथिक कहां।'


पथ में..............


 


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