सामर्थ्य का सदुपयोग


             प्रत्येक मनुष्य में अलौकिक शक्ति का भंडार भरा पड़ा हैआवश्यकता है इन शक्तियों को पहचान कर उनके सदुपयोग की।


             हम जिन महान पुरुषों के नाम का उल्लेख करते हुए गर्व का अनुभव करते हैं, उन्होंने अपनी इस विराट शक्ति का बोध किया था एवं जीवन को सही दिशा दी थी। बाल्मिकी, तुलसीदास, रहीम, कबीर, बुद्ध, महावीर, गांधी आदि अनेक महामानवों के उदाहरण हमारे सामने हैं।


              इस सम्बन्ध में यहाँ कई दृष्टान्त दिये जा रहे हैं जिनसे हमें इस बारे में समझने, जानने एवं सही दिशा में सोचने का मौका मिलेगा।


             धन का आगमन होने पर अधिकतर लोग जन्मदिन, विवाह-शादी एवं अन्य उत्सवों पर खाने पिलाने एवं फिजूलखर्ची के रूप में ही धन का उपयोग करते हैं, कुछ सिर्फ अपने रहने एवं शान-शौकत में ही एवं कुछ उसे सिर्फ जमा करके रखने में। मानव जीवन का मूल सिद्धान्त है जरूरतमंदों की किसी न किसी रूप में सेवा करना। भूखे को अन्न, प्यासे को जल,रोगी को औषधि, वस्त्रहीन को वस्त्र, अशिक्षित को शिक्षा, निराश्रय को आश्रय एवं जीविकाहीन को जीविकोपार्जन में सहयोग देना ही सामर्थ्य का सही उपयोग है।


               एक अन्धा भिखारी मांगता रहता था। जो कुछ मिलता उसी से अपना गुजर बसर करता। एक दिन एक धनी व्यक्ति ने उसे हाथ पर पांच रुपये का नोट रख दिया और आगे की राह ली। उन दिनों नोट का चलन शुरु ही हुआ था। भिखारी ने कागज को टटोल-टटोल कर देखा और समझा कि किसी ने उससे ठिठोली की है और उसने नोट को खिन्न मन से जमीन पर फेंक दिया। एक सज्जन पुरुष यह सब देख रहे थे। उन्होंने उसे नोट के बारे में समझाया। तब वह प्रसन्न हुआ।


               ज्ञान चक्षुओं के अभाव में हम भी परमात्मा के अपार दान को देख और समझ नहीं पाते और सदा यही कहते रहते है कि हमारे पास कुछ नहीं है, हमें कुछ नहीं मिला, आवश्यकता है जो मिला है उसके सही उपयोग का।


              सामर्थ्य के सदुपयोग की एक रोचक कथा है। एक बार पाँच असमर्थ और अपंग लोग इकट्ठे हुए और कहने लगे यदि भगवान ने हमें समर्थ बनाया होता तो बहुत बड़ा परमार्थ करते। अन्धे ने कहा- यदि मेरी आँखें होती तो जो जहाँ कहीं अनुपयुक्त देखता, वहीं उसे सुधारने में लग जाता। लंगड़े ने कहा- पैर होते तो दौड़-दौड़ कर भलाई का काम करता। निर्बल ने कहा- बल होता तो अत्याचारियों को मजा चखा देता। निर्धन ने कहा- धनी होता तो दीन-दुखियों के लिए सब कुछ देता। मूर्ख ने कहा- विद्वान होता तो संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता।


              भगवान ने उनकी बातें सुन ली और सबको इच्छित स्थिति मिल गई। पर स्थिति बदलते ही उनके विचार भी बदल गए। अन्धा सुन्दर वस्तुओं को देखने लगा। बलवान ने औरों को आतंकित करना शुरु कर दिया। विद्वान अपनी चतुरता से जमाने को उल्लू बनाने लगा। ईश्वर यह सब देखकर बहुत खिन्न हुए और उन्होंने अपना वरदान वापस ले लिया। उन्होंने हाथ में आया सुअवसर खो दिया।


             सूझबूझ और समझदारी से अपने सामर्थ्य के सदुपयोग की एक ओर दिलचस्प कथा एक किसान के चार बेटे थे, उनकी बुद्धिमता जाँचने के लिए उसने सभी बेटों को बुलाकर एक-एक टोकरी धन दिया और कहा- इनका जो मर्जी हो सो करना।


              मर्जी हो सो करना। पिता ने कुछ समय बाद चारों से उपयोग की जानकारी की। एक ने कहा, उसने पक्षियों को अनाज खिलाया है। एक ने स्वयं द्वारा किये गये उपयोग के बारे में बताया। एक ने वह अनाज पिता के सामने लाकर रख दिया और उसे संभाल कर रखने की बात बताई। चौथा कई टोकरा अनाज भरकर लाया और कहा कि उसने धान का उपयोग बीज के रूप में किया एवं कई गुणा वृद्धि कर उसका एक हिस्सा औरों की सहायता के काम में लिया है। कुछ अपने लिए उपयोग में लिया, कुछ बीज के लिए संभाल कर रखा है और बाकी आपके सामने है। 


            एक छोटी सी बोध कथा का चिन्तन मनन करें तो हमारे सामने कई ऐसे ही दृश्य उभर कर आयेंगे। धन का आगमन हो पा अधिकतर लोग जन्मदिन, विवाह-शादी एवं अन्य उत्सवों पर खाने-पिलाने एवं फिजूलखर्ची के रूप में ही धन का उपयोग करते हैं। कुछ सिर्फ अपने रहने एवं शान-शौकत में ही एवं कुछ उसे सिर्फ जमा करने रखने में। समझदार वहीं है जो इसका उपयोग एक लगाये लाख पाये वाली कहावत के रूप में उपयोग कर धन की उपलब्धि के _साथ यश और प्रतिष्ठा भी प्राप्त करें। ईश्वर भी तभी प्रसन्न होता है।


             अपने वैभव का प्रदर्शन करते नहीं थकते अनेक लोग। एक धनी व्यक्ति ने एक माहत्मा को अपना हीरे-मोतियों से भरा खजाना दिखाया। महात्मा ने पूछा-"इन पत्थरों से आपको कितनी आय होती है।" धनी व्यक्ति ने कहा- आय नहीं होती। बल्कि इनकी सुरक्षा की चिन्ता बनी रहती है। इन्कमटैक्स वालों और नौकर-चाकरों से भी भय बना रहता है।


              महात्मा उसे एक गरीब की झोपड़ी में ले गये। वहां एक स्त्री चक्की से अनाज पीस रही थी। महात्मा ने उस ओर संकेत कर कहा तुम्हारे उस उपयोगहीन पत्थरों से यह पत्थर अच्छे हैं जो पूरे परिवार का भरण पोषण करते हैं।


             भारत के न्यायाप्रिय असाधारण वीर विक्रमादित्य जिनकी स्मृति में अक्षुण्ण वीर विक्रम संवत् आज भी चल रहा है अपने दरबार में अपने सामने एक श्लोक लिखा हुआ रखते थे।


                                प्रत्यहंप्रत्यवेक्षेत, नरश्चरितमात्मनः।
                               किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं, किन्नुसत्पुरुषारिव।।


              तेरे इस बहुमूल्य जीवन का जो दिन व्यतीत हो रहा है वह पुनः लौटकर नहीं आयेगा- अतः प्रतिदिन यह चिन्तन कर कि आज का दिन गुजरा, वह पशुवत गुजरा अथवा सत्पुरुष की तरह गुजरा।


             नित्यप्रति सिंहासन पर आरूढ़ होने के पूर्व वे इन पंक्तियों पर गंभीर चिंतन करते थे। समय एवं सामर्थ्य सदपयोग की प्रेरणा देने वाले इस श्लोक की दीप-ज्योति से उनका जीवन सदा प्रकाशित व प्रेरित रहा। अन्त में वे सचमुच विक्रमादित्य बन सके।


              मानव जीवन का मूल सिद्धान्त है जरूरतमन्दों की किसी न किसी रूप में सेवा करना। भूखे को अन्न, प्यासे को जल, रोगी को औषधि, वस्त्रहीन को वस्त्र, अशिक्षित को शिक्षा, निराश्रय को आश्रय एवं जीविकाहीन को जीविकोपार्जन में सहयोग देना ही सामर्थ्य का सही उपयोग है l 


 


-पुष्करलाल केडिया



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