ऋषियों के दो भेद


             ऋषि दो प्रकार के होते हैं- (१) देवऋषि, (२) श्रुतऋषि । इन में से देवऋषि वे हैं, जिन पर वेद का प्रकाश होता है। जैसे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा। श्रुतऋषि वे हैं जो देव तथा अपने से पहले श्रुत-ऋषियों से शिक्षा पाकर ऋषि बनते हैं। इन्हीं दोनों प्रकार के ऋषियों को पूर्व और नूतन ऋषि भी कहा जाता है। यथा- 


    अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥


-ऋग्वे द १।१।२॥


            अर्थात् वह (अग्नि) ईश्वर, पूर्व (देव) और नूतन (श्रुत) दोनों प्रकार के ऋषियों से स्तुति करने योग्य है। देव ऋषियों का प्रादुर्भाव जगत् के प्रारम्भ ही में एक बार हुआ करता है। वे बार-बार नहीं होते। परन्तु श्रुतऋषि, बराबर होते रहते हैं। इसीलिए वेद में मनुष्यों को श्रुतऋषि होने योग्य ही पुत्र की प्रार्थना करने का विधान किया गया है।


सुब्रह्माणं देववन्तं बृहन्तमुरुं गम्भीरं पृथुबुधमिन्द्रः।
श्रुतऋषिमुग्रमभिमातिषाहमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिंदाः॥


-ऋग्वेद १०।४७।३॥


           अर्थात् हे इन्द्र! हमें, वेद का प्रेमी, परमात्मा का भक्त, उदार, विशाल-हृदय, गम्भीर, फैली हुई जड़ों (यक) वाला, तेजस्वी, पुत्र दे। योगसूत्र में आये हुए 'पूर्वेषाम्' शब्द का अभिप्राय देव ऋषियों से है और इन देव ऋषियों का भी गुरु, ईश्वर को कहा गया है। अस्तु! जगत् के प्रारम्भ में ज्ञान (नैमित्तिक) ईश्वर की ओर से मिला करता है। यह सिद्धान्त जगत् के प्रारम्भ से डार्विन के जमाने तक, सर्वसम्मति से बराबर माना चला आता रहा था। डार्विन ने इस सिद्धान्त के सर्वसम्मत होने में, अपने विकासवाद के द्वारा आपत्ति उठाई जिस का विवरण इस प्रकार है।



Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।