ऋषि दयानन्द की ईश्वर-विषयक मान्यता

ऋषि दयानन्द की ईश्वर-विषयक मान्यता


         ईश्वर एक नाम अनेक- महर्षि ने अपने प्रधान ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाशके प्रथम समुल्लास में बड़े विशद रूप में इस सचाई का उद्घाटन किया है कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, रुद्र, महादेव, गणेश, नारायण आदि अलग-२ ईश्वर नहीं हैं। एक ही ईश्वर, जिसका निज तथा मुख्य नाम 'ओ३म्' है के गुण कर्म-स्वभाव के आधार पर असंख्य नाम हैं। उनमें से १०८ नामों का विवेचन करते हुए महर्षि ने बताया हैका


“एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति'


       अर्थात् एक ही ईश्वर को विद्वान् अनेक नामों से पुकारते हैं। जैसे-संसार का रचयिता होने से उसी एक ईश्वर का नाम 'ब्रह्मा' है, सभी में व्यापक होने से तथा सभी का पालन करने वाला होने से उसी ओंकार प्रभु को 'विष्णु' कहते हैं। वह सबका कल्याण करता है इसलिए उसका नाम 'शिव' है। माता पिता, अतिथि, आचार्य आदि 'देव हैं और इन देवों के देव होने से परमात्मा का नाम 'महादेव' है। वह पापियों को रुलाता है तथा दण्डित करता है इसलिए उसका नाम 'रुद्र' हैइस प्रकार युगों के पश्चात् आचार्य दयानन्द ने अध्यात्म के क्षेत्र में वैदिक “एकैश्वरवाद' का सनातन उदघोष किया। महर्षि ने पवित्र वेदों के आधार पर इस भ्रान्ति का पूरे बल से प्रतिवाद किया कि सूर्य ( सविता) अग्नि, वायु, जल, इन्द, मरुत् आदि उपास्य देवता हैं और कि आर्यजन बहुदेवों के उपासक थे। उन्होंने बताया कि वेद के शब्द यौगिक हैं। एक ही शब्द के प्रकरण के अनुसार अनेक अर्थ हो सकते हैं। जैसे-अग्नि शब्द का महर्षि निरुक्ताचार्य के अनुसार अर्थ हैं-


'अग्रे अग्रे नयति स अग्निः '


        अर्थात् जो आगे-आगे चले या आगे-आगे ले चलता है उसे अग्नि कहते हैं। यह भौतिक अग्नि भी आगे-आगे या ऊपर-ऊपर को जाती है, अतः यह भी 'अग्नि' है। आचार्य शिष्य को आगे-आगे ले चलता है इसलिए आचार्य 'अग्नि' है। राजा प्रजा को आगे बढ़ाता है इसलिए राजा भी अग्नि है। आत्मा शरीर को गति देती है इसलिए आत्मा भी 'अग्नि' है और परमपिता परमात्मा सारे विश्व-ब्रह्माण्ड को गति देता है इसलिए परमात्मा भी 'अग्नि' (परमाग्नि) है। अब प्रकरण के अनुसार यह देखना होगा, जहाँ अग्नि के साथ जड़त्वादि विशेषण हैं वहाँ उसका अर्थ भौतिक अग्नि होगा, जहाँ अल्पज्ञादि विशेषण हैं वहाँ अग्नि का अर्थ जीवात्मा राजा या आचार्य होगा। जहाँ अग्नि के साथ सर्वज्ञादि-विशेषण हों वहाँ उसका अर्थ परमेश्वर होगा। इस तत्व के आधार पर महर्षि दयानन्द ने बताया कि आर्यजन जड़-अग्नि, जड़-वायु या जड़-सूर्य के उपासक नहीं थे। किन्तु एक सर्वज्ञ परमपिता परमात्मा, जिसका निज तथा मुख्य नाम ओ३म् है, के ही उपासक थे।


      रोगों में 'ज्वर' प्रमुख है, तुलसी और पीपल को शास्त्र में ज्वर की प्रमुख औषधि माना है परन्तु उनसे लाभ उठाना तो रहा दूर, हम उनकी परिक्रमा करते हैं। सूत लपेटते हैं और उन्हें तुलसी भगवती व पीपल महादेव कहते हुए नमस्कार करते हैं। ऋषि की मान्यता के अनुसार यह घोर अज्ञानता है।


      वैदिक भक्तिवाद में ज्ञान, कर्म और उपासना का समन्वय है अर्थात् ज्ञान-पूर्वक सत्कर्म को साधना और प्राप्त उपलब्धि की ईश्वरार्पित करना ही सच्ची उपासना है। पवित्र वेदों के आधार पर ईश्वर के लक्षण करते हुए महर्षि दयानन्द ने बताया-


     “ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारीदयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।''-(आर्यसमाज का दूसरा नियम)


     "वह सभी जीवों का कर्मानुसार सत्य न्याय से फल-दाता आदि लक्षण युक्त है। उसी को मैं ईश्वर मानता हूँ।'-(स्वमन्तव्यामन्तव्य) 


      इन लक्षणों के आधार पर न ईश्वर जन्म लेता है, न ईश्वर माँ के गर्भ में आता है और न अन्य जीवों की भाँति सुख-दुःख भोगता और अन्त में मृत्यु को प्राप्त होता है। महर्षि ने अवतारवाद की मान्यता का वेदों के आधार पर प्रतिवाद किया है


काम “न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यशः।


हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हि सीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।"


"स पय॑गाच्छुक्रमकायमव्रण मस्नाविर शद्धमपापबिद्धम्।


कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्वयद्धाच्छाश्वतीभ्यः


समाभ्यः।"                                           -यजुर्वेद 


         अनेक मन्त्रों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने बताया कि ईश्वर निराकार है, उसकी कोई मूर्ति नहीं है, ईश्वर की विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ बनाकर उसके नाम पर मानव-समाज को जिस प्रकार खण्ड-खण्ड किया गया और ईश्वर भक्ति को एक दम्भपूर्ण व्यवसाय बना दिया गया, यह सब ऋषि दयानन्द को सर्वथा असहनीय थाइसलिए उन्होंने मूर्तिपूजा का कबीर, दादू, नानक आदि की अपेक्षा भी तीव्रतम खण्डन किया, ईश्वर के स्थान में देवी-देवताओं की कल्पित मूर्तियों की पूजा वेदानुकूल नहीं, मूर्ति-पूजा में भावना की युक्ति ठीक नहीं भावना सीधे ही सत् चित् आनन्द ईश्वर में होने से ईश्वर भक्त को शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त होती है।


        ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का सगुण व निर्गुण भेद स्वीकार किया है अर्थात् ईश्वर, दयालु, न्यायकारी, परोपकारी होने से सगुण है और अजन्मा, अनन्त आदि होने से निर्गुण है। अतः ईश्वर सगुण है, निर्गुण भी है, किन्तु सगुण का अभिप्राय साकार और निर्गुण का अभिप्राय निराकार मानना भ्रान्ति मूलक और असत्य है। ईश्वर निराकार ही है, साकार नहीं।


       महर्षि दयानन्द का मन्तव्य था कि ईश्वर-भक्ति ईश्वर-ईश्वर चिल्लाने में नहीं है, किन्तु ईश्वर की आज्ञा जिसका विधान वेदों में किया है उसका पालन करने में है। वे यह नहीं मानते कि ईश्वर भक्ति करने से किये हुए पापों के फल नष्ट हो जायेंगे। ईश्वर भक्ति जिसे उन्होंने 'स्तुति प्रार्थना व उपासना' के रूप में प्रस्तुत किया है, उसका लाभ कृतज्ञता-प्रकाशन, निष्पापता, निरभिमानता, दयालुता, न्यायकारिता, परोपकार आदि सदगुणों के धारण में है। ईश्वर-भक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करने और पहाड़ जैसे कष्टों को धैर्य-पूर्वक सहन करने की शक्ति प्रदान करती है।


       सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है (आर्यसमाज का पहला नियम ) अर्थात् ईश्वर ही वेद ज्ञान का दाता तथा समस्त ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत है।


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