ऋषि दयानन्द एवं गृह्यसूत्र परम्परा

    ऋषि दयानन्द एवं                          गृह्यसूत्र परम्परा


वैदिक  साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ अथवा हम कह सकते हैं कि आर्यों का धर्मग्रन्थ वेद है और उस वेद की वेदार्थ परम्परा को सुदृढ करने हेतु वेदांगों का ज्ञान होना अति आवश्यक है शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष ये छः वेदांग है। कल्प के चार विभाग है। १. श्रौतसूत्र । २. गृह्यसत्र। ३. धर्मसूत्र। ४. शुल्बसूत्र।


आज हम गृह्यसूत्र के आधार पर यज्ञों को जानने का प्रयत्न करेंगे। महर्षि पाणिनि ने कल्प शास्त्र को वेद परूष का हस्त कहा है - 'हस्तौ कल्पोऽथपठ्यते'।


किन्तु यह ऐसा अंग नहीं है, जैसे शरीर का अंग है क्योंकि शरीर तो अंग रुप ही होता है। हाथ, पैर, उदर, शिरादि अंगों को अलग कर देने पर शरीर ही समाप्त हो जाएगा और शरीर की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहेगी, जबकि शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष का पृथक् अस्तित्व है और वेद पुरूष का पृथक् अस्तित्व है। षड वेदांग को वेदार्थावगम और वेदाध्ययन में परमोपकार होने से अंगवत् मुख्य माना गया है। अतः ध्यान रहे कि इन दोनो शास्त्रों की पृथक्-पृथक् सत्ता है, और महत्व है।


ऋषि दयानन्द ने यज्ञ का स्वरूप, यज्ञ-सामग्री, यज्ञ की वैज्ञानिक व्याख्या आदि अन्य यज्ञपरक प्रश्नों का उत्तर मिलना संदेहास्पद है। परन्तु सभी यज्ञों का मूलस्रोत गृह्यसूत्र दी है। आज पौराणिक जगत में जो भी अयज्ञीयपरक परम्पराएँ प्राप्त होती है, वो सभी गृह्यसूत्रों की ही देन है। इसी विषय पर आगे हम चर्चा करेंगे। उससे पूर्व वेदांगों की उपयोगिता को जान लेना आवश्यक है। वेद की यह शैली है, इसमें विषय या विद्याएँ बीज रूप में वर्णित है और अन्य शास्त्रों में उनका विशेष व्याख्यान हैब्राह्मण ग्रन्थों का कार्य यज्ञादि की मीमांसा करना है. वेद के दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन दर्शनशास्त्रों में हैंधर्म एवं सामाजिक व्यवस्थाओं का विस्तार ज्योतिष शास्त्रों में है इसलिए ध्यान रहे कि वेद स्वतः प्रमाण है, और वेदानुकूल होने से ही अन्य शास्त्रों की प्रामाणिकता मान्य है जैसे महिला सम्मान के दृष्टिकोण में कदाचिद् कोई अलग से सूक्त किसी वेद में न मिले, परन्तु हमने ये अनेक स्थलों पर पढ़े हैं


                                     'समराज्ञि श्वशुरैः भव' इस शब्द का अर्थ विस्तार मनुस्मृति में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' के रूप में हुआ है, इसलिए स्मृतियों तथा अन्य ग्रन्थों में जहाँ नारी का गौरव और उत्कर्ष है, वह वेदानुकूल होने से प्रमाण है, यदि वेदांगों में अथवा स्मृति शास्त्रों में कहीं पर नारी को अधम या निकृष्ट कहा गया है तो वह वेद विरुद्ध होने से अप्रमाण है। कल्पशास्त्र की (गृह्यसूत्र) प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का चिन्तन भी इसी दृष्टिकोण से करना चाहिए। आज के इस लेख में गृह्यसूत्र का तात्पर्य ऋग्वेद के तीनों गृह्यसूत्रों से है आश्वलायन, शांखायन एवं कौषातकि। गृह्य का तात्पर्य पत्नी के साथ किये जाने वाले कर्म से है, गृह्याग्नि में सम्पन्न होने वाले संस्कारों को प्रतिदिन की धार्मिक क्रियाओं से सम्बन्धित तथागृहस्थ कर्मों की विवेचना करने के कारण गृह्यसूत्र कहते है।


१. आश्वलायन गृह्यसूत्रः- यह ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा से सम्बन्धित है, इसमें यज्ञों के साथ-साथ अष्टका गृहनिर्माण पञ्चमहायज्ञ, स्वाध्याय, तर्पण, पायश्चित कर्म तथा श्राद्धों का विशेष वर्णन है।


२. शांखायन गृह्यसूत्रः- इस गृह्यसूत्र का सम्बन्ध ऋग्वेद की शांखायन शाखा से है, विवाह से लेकर बाल्यावस्था के संस्कारों के साथ-साथ समावर्तन, गृहनिर्माणविधि. श्राद्ध, तर्पणादि कर्म कृत्यों का विवेचन किया गया है।


३. कौषीतकि गृह्यसूत्रः- यह गृह्यसूत्र ऋग्वेद की कौषीतकि शाखा से सम्बन्धित है। इसमें शांखायन गृह्यसत्रों में वर्णित विषयों में समानता अवश्य है, परन्तु ये दोनों गृह्यसत्र भिन्न-भिन्न है, इसमें अभिवादन की विधि अष्टकादि श्राद्धों के विवेचन के साथ-साथ अकरणीय कार्यों से उत्पन्न दोषों को दूर करने का विशेष उपाय का वर्णन प्राप्त होता है।


गह्यसूत्रों का महत्व:- ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों में यज्ञादि का विधान है, उनमें धार्मिक क्रियाओं का उल्लेख अव्यवस्थित एवं असूत्रीय रूप में पड़ा था। उनको क्रमबद्ध रूप में रखने का कार्य इन्ही गृह्यसूत्रों ने किया। सूत्रकार अपने समय के सभी प्रकार के प्रचलनों, संस्कारों, गृहकलापों तथा प्रथाओं के विषय में निर्देश करने के साथ ही साथ अपने समय की सामाजिक गतिविधियों का भी संकेत करते हैं, इसलिए सभी गृह्यसूत्रकारों की यज्ञीय व्याख्या वेदानुकूल ही होगी, ऐसा आवश्यक नहीं हैक्योंकि गृह्यसूत्रकार तत्कालीन व्यवस्थाओं का केवलमात्र दिग्दर्शन ही करते है, समर्थन नहींअतः ध्यान रहे गृह्यसूत्रकारों की भी यदि वेद के प्रतिकूल कोई भी विधि है, तो वह स्वीकरणीय नहीं है।


ब्रह्मयज्ञः- आश्वलायन ने वेदाध्ययन को ब्रह्मयज्ञ कहा है। आश्वलायन स्वाध्याय के अन्तर्गत चारों वेदों के साथ-साथ ब्राह्मण, कल्प, गाथा नाराशंसी, इतिहास और पुराणों को भी पढने का निर्देश करते है।


शांखायन गृह्यसूत्र में स्वाध्याय विधि और संन्धोपासना कर्म नाम से ब्रह्मयज्ञ से सम्बन्धित जो प्रकरण है, उनमें वो लिखते हैं, कि प्रातःकाल उठकर, आचमन करके स्वाध्याय करना चाहिए।


आश्वलायन और शांखायन दोनों के ही मत से ब्रह्मयज्ञ नित्यकर्म है। आश्वलायन ने स्वाध्याय का विशद् विवेचन किया है, तथा स्वाध्याय को नित्यकर्म बताया है। देवयज्ञः- 'देवा यज्ञन्ते येन स देवयज्ञः' जिसके द्वारा देवताओं का यजन किया जाता है, उसे देवयज्ञ कहते है। 'अग्नौ हूयतेऽस्मिन् तदग्निहोत्रं तथा हूयते येन यस्मिन् वा स होम हवनं वा' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अग्नि में आहुतियों को प्रदान करना देवयज्ञ, अग्निहोत्र, हवन या होम कहा जाता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है - 'दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग और सेवादि से होता है। आश्वलायन गहसत्र में कहा गया है कि अग्निहोत्र शब्द द्रव्य और कर्म दोनों अर्थों में विद्यमान है। ऋषि लिखते है सायं तथा प्रातः सिद्ध हविष्य का हवन करना चाहिए।


यहाँ सिद्ध का अर्थ पका हुआ है। आचार्य शांखायन नेअग्निहोत्र को अग्निकार्य कहकर विधान किया है, सन्धोपासना कर्म के पश्चात् अग्नि का विधान करते हुए शांखायन कहते है कि प्रतिदिन सायं प्रात: अग्निहोत्र करना चाहिए। आचार्य शांखायन ललाट, हृदय, दक्षिण स्कन्ध, वाम स्कन्ध और पृष्ठभाग पर भस्म के लेपन का विधान करते है।


इसके उपरान्त अर्थवाद वाक्य के रुप में लिखा कि जो इस प्रकार अग्निहोत्र करके अग्नि का उपस्थान करता है, वह व्यक्ति सभी वेदों को पढ़ लेता है। आश्वलायन और शांखायन दोनों के ही अग्निहोत्र में समानता दृष्टिगोचर नहीं होती, जहाँ आश्वलायन ने सिद्ध हवि का हवन करना चाहिए, इतना विधान करके, कछ मन्त्रों का पाठ करके अग्निहोत्र विधि का समापन कर दिया है, वहीं शांखायन ने अग्न्याधान परिसमूहन, पयूक्षण भस्म लेपन विधियों का विधान किया है। वर्तमान में प्रचलित अग्निहोत्र विधियों के समक्ष ये विधियाँ अत्यल्प प्रतीत होती है। इस विधान से व्यवस्थित तरीके से अग्निहोत्र नहीं हो सकता। सायं प्रातः अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए, ऐसा विधान तो सुतराम ही स्पष्ट है, किन्तु यदि कोई व्यक्ति इन विधानों को देखकर अग्निहोत्र करना चाहे तो शायद कदापि नहीं होगा।


शांखायन गृह्यसूत्र में यज्ञ की सामग्री का निर्देश नहीं किया है। अग्नि का आधान, अग्नि का प्रदीपन, जलसेचन का विधान करने के उपरान्त जो मन्त्र दिये गये हैं, वे सभी समिधा से सम्बद्ध है, सभी चार मन्त्रों में समिधा का वर्णन है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पर केवल समिधाओं से ही यज्ञ का विधान है। कदाचित् ये विधान केवल ब्रह्मचारी के लिए ही हो, क्योंकि घृत शाकल्य आदि की व्यवस्था ब्रह्मचारी नहीं कर सकता, अतः वह केवल समिधा से यज्ञ करता है। __ शांखायन ने अग्निहोत्र का विधान करते हुए लिखा हैकि समावर्तन किया जाता हुआ जिस अग्नि में अन्तिम समिध ॥ का आधान करता है, उसी अग्नि को अग्निहोत्र के लिए स्वीकार करें। अथवा जिस अग्नि में विवाह संस्कार हआ है, उस अग्निहोत्र के लिए स्वीकार करें।२० कछ लोगों का अभिमत है कि सम्पत्ति के विभाजन के समय संस्थापित अग्नि को अग्निहोत्र के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए| 


जिनके घर में पशु और धन अधिक मात्रा में हो ऐसे द्विज अर्थात् क्षत्रिय और वैश्य जो बहुत यज्ञ करते है, किसी एक के घर से अग्नि लाकर आधान करना चाहिए।१२ ध्यातव्य है |कि इस प्रकार की विधियों का पालन वर्तमान में भी अनेक स्थानों पर देखा गया है। स्वयं मेरे द्वारा इस प्रकार की विधिपरक यज्ञ देखे गये है। यह विधि वर्तमान में कितनी प्रासांगिक है, इसका विचार पाठक स्वयं करें। अग्निहोत्र करने हेतु यज्ञोपवीत इत्यादि होने का विधान सभी कल्पों में एक समान है। अतः यज्ञ करने के लिए यज्ञोपवीत होना अनिवार्य है। यज्ञकर्म के समापन के पर ब्राह्मणों को भोजन भी अवश्य कराना चाहिए।


 अर्थात् ब्राह्मण भोजन यज्ञ का अनिवार्य अंग है परन्त ये प्रश्न समुपस्थित होता है। कि कौन से ब्राह्मण? इसके उत्तर में शांखायन लिखते हैं कि ब्राह्मण वाणी रुप, वय, श्रुतशील और चरित्र इन गुणों से युक्त होना चाहिए।१५


शांखायन कहते हैं कि इन सब गुणों में भी श्रुतगुण सबसे महत्वपूर्ण है।१६ आचार्य इससे आगे कहते हैं कि श्रतगण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।१७ 


यहाँ अत्यन्त स्पष्ट है कि वेद विद्याविद्, चरित्र से अति निर्मल, सुन्दर और शीलवान् बड़ी अवस्था वाले ही ब्राह्मण पदवाच्य हैं। ब्राह्मणत्व में जन्म कारण नहीं है। वर्तमान ब्रह्मभोज के नाम पर हम किस प्रकार के ब्राह्मणों को भोजन या दान दक्षिणा दे रहे है, यह एक चिन्तनीय विषय है, लिए प्रकार वर्तमान में जातिव्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण कुल में उत्पन्न अनधीत व्यक्ति भी जिस प्रकार ब्राह्मण पद वाच्य है, वह शांखायन को स्वीकार नहीं है। जाति व्यवस्था के कारण ब्राह्मणत्व प्राप्त व्यक्ति, सामाजिक सौजन्य के कारण नहीं बन सकते। अत: वेदविद् ब्राह्मण ही भोजन और सत्कार के योग्य हैं।


यज्ञ परम्परा में आर्च गृह्यसूत्रों (ऋग्वेदीय गृह्यसूत्रों) को पढ़ने के उपरान्त यदि कोई यज्ञ करना चाहे तो यह संभव नहीं है। किसी भी गृह्यसूत्रकार ने पूर्ण यज्ञविधि का वर्णन नहीं किया है। कई बार प्रश्न उठता है कि ऋषि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित यज्ञ का स्वरुप जिस सरलता से, वैज्ञानिकता से, आध्यात्मिकता के दृष्टिकोण से किया गया है, यह यज्ञ कीविधि वह यज्ञ का स्वरुप, सभी भौतिकवादियों को, सभी) गृहस्थियों को, सभी वैज्ञानिकों के द्वारा स्वत: अनुकरणीय है, एवं उनके द्वारा प्रतिपादित यज्ञ की व्याख्या को विज्ञान की दृष्टि से भी वैज्ञानिकों ने उत्तम माना हैं, जो संस्कृत और वेट को न पढ़ने वाला है, वह भी नित्य नियमित दिनचर्या में इस सरल यज्ञ को अपना सकता है। स्वामी दयानन्द जी ने गृह्यसत्रों से वही ग्रहण किया है जो वेदानुकूल और वैज्ञानिकता एवं तर्क युक्त था। बहुत सारे क्रियाकलाप गृह्यसूत्रों में अनुपयक्त है, उनकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वेद के विद्वानों द्वारा उचित समीक्षा की जानी चाहिएअन्त में सार रूप में यही कहना चाहता हूँ कि गृह्यसूत्रकार जो भी विधि या विधान का वर्णन करते है वह तत्कालीन, सामाजिक विधि-विधानों को ही कहते है, न कि उनका सर्मथन। अतः गृह्यसूत्रों में जो जो वेदानुकूल है, वह वाघ वेदानुकूल है, वह विधि स्वीकरणीय हैजो वेदों के प्रतिकूल है, वह अस्वीकरणीय है, क्योकि वेद ही स्वत: प्रमाण है अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं|



  1. सन्दर्भसूचि :-

  2.  ::१. यत्स्वाध्यायमधीते स ब्रह्मयज्ञो,आश्वलायन,गृह्यसूत्र ३.१.३ ।

  3. २. अथ स्वाध्यायम्.....इतिहासपुराणमिति,आश्वलायन,गृह्यसूत्र ३.३.१ ॥

  4. ३. सत्यार्थप्रकाश तृतीय समुल्लास (पृष्ठ ४३) आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ।

  5. ४. अनादिष्टद्रव्यत्वादात्यं प्रसज्येत,आश्वलायन, गृह्यसूत्र १.२.१॥

  6. ५. अथ सायं प्रातः सिद्धस्य हविष्यस्य जुहुयात्।आश्व., गृह्यसूत्र १.२.१॥

  7. ६. सिद्धपक्वम्। आश्वलायन, गृह्यसूत्र १.२.१॥

  8. ७. अहरहः सायं प्रात:...........शांखायन गृह्यसूत्र २.१०.१॥

  9. ८. स एतेषां वेदानां एकं द्वौ त्रीन् सर्वान् वा अधीते य एवं भूत्वा अग्निम् उपतिष्ठति ॥

  10. ९. द्रष्टव्य.......शांखायन गृह्यसूत्र १.१.२॥

  11. १०.द्रष्टव्य.......शांखायन गृह्यसूत्र १.१.३ ।

  12. ११.द्रष्टव्य...शांखायन गृह्यसूत्र १.१.४॥

  13. १२.द्रष्टव्य........शांखायन गृह्यसूत्र १.१.८ ॥

  14. १३.द्रष्टव्य........शांखायन गृह्यसूत्र १.१.१३ ॥

  15. १४.कर्मापवर्गे ब्राह्मणभोजनम्.....शांखायन गृह्यसूत्र १.२.१ ।

  16. १५.द्रष्टव्य.......शांखायन गृह्यसूत्र १.२.२ ॥

  17. १६.श्रुतं तु सर्वानत्येति........शांखायन गृह्यसूत्र १.१.३॥

  18. १७.न श्रुतमतीयात्.........शांखायन गृह्यसूत्र १.१.४॥


                                                                                - दयानन्द वैदिक अध्ययनपीठ,


                                                                                पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़


 


 


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