रणथंभौर किले में राय हमीर ने किया जौहर का आयोजन, खिलजी ने मिटाए मंदिर

रणथंभौर किले में राय हमीर ने किया जौहर का आयोजन, खिलजी ने मिटाए मंदिर


विजय मनोहर तिवारी


         यह भारत के इतिहास का सबसे अंधेरा दौर है। समृद्ध किंतु असंगठित हिंदुओं के भाग्य का सितारा जैसे सब तरह से डूब रहा था। अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद बेरहमी से हिंदू राज्यों को लूटने और किसी भी कीमत पर कब्ज़ा करने में ही सारी ताकत झोंक दी। उसने एक हिंदू राज्य की लूट से हासिल दौलत दूसरे राज्यों को लगातार लूटने में लगाई।


        गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडू तक उसके हमलावर लुटेरे लगातार धावे बोलते रहे और हर फतह के बाद दिल्ली की मस्जिदों के मिंबर से कामयाब लूट की खबरें पढ़कर सुनाई जाती रहीं। दिल्ली के दरवाज़ों पर हर फतह के बाद लौटतीं फौजों ने लूट के माल की एक से बढ़कर एक नुमाइशें कीं। इतना सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात और गुलाम दिल्ली ने कभी एक साथ नहीं देखे।


        गुजरात की लूट के बाद अब रणथंभौर की बारी थी, जहाँ पृथ्वीराज चाैहान के नाती हमीरदेव का राज्य निशाने पर था। गुजरात पर हमले के दौरान हम देख चुके हैं कि खिलजी की फौज के कुछ नाराज़ नवमुस्लिम सरदार हमीरदेव की शरण में आ गए थे।


       जियाउद्दीन बरनी, अमीर खुसरो और इब्नबतूता ने रणथंभौर युद्ध की शानदार रिपोर्टिंग की है। ये ब्यौरे यह बताते हैं कि दिल्ली पर इस्लामी कब्ज़े के 125 साल बाद तक हिंदू अपनी बची-खुची और बिखरी हुई ताकत से किस तरह मुँह तोड़ जवाब इन जाहिल लुटेरों को दे रहे थे।


       कड़ा और बयाना पहले ही उनके कब्ज़े में थे। यहाँ पल रही लुटेरों की फौज को रणथंभौर घेरने के लिए कहा गया। बयाना उसके भाई उलुग खां के कब्जे में था और कड़ा में नुसरत खां था, जिनका सितारा गुजरात को बरबाद करने के बाद बुलंदी पर था। रणथंभौर के किले के चारों तरफ इनके शिविर लगे। किले के भीतर से इन्हें जवाबी हमले झेलने पड़ते थे।


        एक दिन एक पत्थर किले से आकर नुसरत को लगा और वह जख्मी हो गया। तीन दिन बाद वह मर गया। दिल्ली में बैठकर हमले की हर दिन की रिपोर्ट ले रहे अलाउद्दीन के लिए यह बड़ा झटका था। अब वह खुद निकला। रणथंभौर के लंबे घेराव और राजपूतों के कड़े मुकाबले ने खिलजी के लुटेरों को परेशान कर दिया था। जियाउद्दीन बरनी बता रहा है-


       “सुलतान के पहुँचते ही घेराव में तेजी लाई गई। राज्य में चारों तरफ से बोरियाँ मंगाई गईं। उनके थैले बनकर सेना में बांटे गए। थैलों में बालू भरी गई और वे खंदकों में डाल दिए गए। पाशेब बांधे गए। गरगच लगाए गए। किले वालों ने मगरबी पत्थरों से पाशेबों को नष्ट करना शुरू कर दिया। वे किले के ऊपर से आग फेंकते थे और दोनों ओर के लोग मारे जाते थे।“


अब आप रणथंभौर के मजबूत और प्राचीन किले के चारों तरफ मचे इस बेवजह युद्ध की तैयारी पर गौर कीजिए। पाशेब का मतलब है मिट्‌टी का एक ऐसा मचान, जो किले की दीवार की ऊँचाई के बराबर होता था। इसपर आग और पत्थर फेंकने वाले उपकरण रखे जाते थे। गरगच का मतलब है एक चलता-फिरता मचान। इन्हें यहाँ से वहाँ किले की दीवार के चारों तरफ अंदर हमला करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।


      दिल्ली में रणथंभौर के हमले में पसीना और खून बहा रही खिलजी की परेशानहाल फौज की खबरें लगातार आती रहीं। खिलजी के खुद वहाँ जाने से भी दिल्ली वालों को लगा कि मामला गुजरात जितना आसान नहीं है। इस समय अलाउद्दीन खिलजी को दो बड़े विद्रोह झेलने पड़े, जिसका खूनी अंत हुआ। इनकी चर्चा हम आगे करेंगे। रणथंभौर एक लंबी मुहिम के बाद जीत लिया गया। राय हमीरदेव और उन नवमुसलमानों की हत्या करा दी गई, जो गुजरात से भागकर हमीरदेव के राज्य में पनाह लिए थे।


                                             किले में आत्मदाह, शहर पर मुस्लिमों का कब्जा


      रणथंभौर से 10 जुलाई 1310 को महाकवि अमीर खुसरो की यह ग्राउंड रिपोर्ट ज्यादा स्पष्ट है– “रणथंभौर के ऊँचे किले की इमारतें नक्षत्रों से बात करती हैं। इस्लामी सेना ने उसे घेर लिया है। मार्च से जुलाई महीने तक यह घेराव रहा। हिंदुओं ने किले की दसों अटारियों पर आग लगा दी। अभी तक मुसलमानों के पास इस आग को बुझाने का कोई सामान नहीं था।


        तब थैलों में मिट्‌टी भरकर पाशेब तैयार किए गए। किले के भीतर से लगातार पत्थर फेंके जा रहे हैं। लेकिन किले में अनाज की कमी हो गई है। एक दाना चावल दो सोने के दाने देकर भी हासिल नहीं हो पा रहा।


        नवरोज के बाद सूरज रणथंभौर की पहाड़ी पर तेजी से चमक रहा है। राय को संसार में बचने की कोई जगह नहीं बची है। किले में आग जलवाकर औरतों ने आत्मदाह किया है। किला जीत लिया गया है।


        झायन जो कि काफिरों का पुराना ठिकाना था, मुसलमानों का शहर बन गया है। सबसे पहले बाहिरदेव का मंदिर मिटा दिया गया है। उसके बाद कुफ्र के सभी घरों का विनाश कर दिया गया है। बहुत से मजबूत मंदिर, जिन्हें कयामत का बिगुल भी हिला नहीं सकता था, इस्लाम की आंधी चलने से जमीन पर सो गए हैं।“


        अलाउद्दीन के पहले जलालुद्दीन खिलजी ने भी यहाँ लूटपाट और कत्लेआम मचाया था, जो इस समय अलाउद्दीन का मुकाबला कर रहे बुजुर्गों की याददाश्त में काफी ताज़ा भी होगा। इतिहास के ये रूखे-सूखे माने जाने वाले रक्तरंजित ब्यौरे भारत की नियति के विवरण हैं, जिनके बारे में हममें से ज्यादातर लोगों को कुछ नहीं पता।


        रणथंभौर आज बियाबान जंगलों में खोए खंडहर किलों, दीवारों और बुर्जों के साथ दुनिया भर में प्रसिद्ध नेशनल पार्क की चहल-पहल से आबाद इलाका है। नेशनल जियोग्राफिक और एनिमल प्लानेट जैसे मशहूर चैनलों ने यहाँ के वन्यजीव के बेहतरीन नज़ारे दुनिया के सामने पेश किए हैं। वर्ष 2012 में मछली नाम की एक बाघिन के कारण रणथंभौर की दुनिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई, जिसे टाइगर क्वीन कहा गया। लेकिन क्या हर साल आने वाले हज़ारों सैलानियों को यहाँ के खंडहरों की याददाश्त में दफन ये कहानियाँ कोई बताता होगा?


         अलाउद्दीन के उस खूनी झपट्‌टे पर एसामी ने लिखा है– “यदि तुर्क खाइयों को लकड़ी से पाट देते थे तो रात में हिंदू लकड़ियों को जला डालते थे। एक साल तक किले का बाल बांका नहीं हो सका। इसके बाद ही चमड़े और कपड़े के थैलों में मिट्‌टी भरकर खाई-खंदक को पाट दिया गया।


         इस तरह किले पर हमले का रास्ता तैयार हो गया। दो-तीन हफ्ते तक और युद्ध चला। तब किले में राय हमीर ने जौहर का आयोजन किया। अपनी सभी बेशकीमती चीजें जला दी गईं। सबसे विदा लेकर राय युद्ध के लिए निकला। राय हमीर युद्ध करते हुए मारा गया।“


        रणथंभौर के इस भयानक खूनखराबे के लिए एक बहाना यह बनाया गया कि गुजरात से भागे नवमुसलमान कमीजी मुहम्मद शाह और काभरू हमीरदेव की शरण में आ गए थे। एक दूत भेजकर इन दोनों को अलाउद्दीन के हवाले करने का प्रस्ताव राय हमीरदेव के पास भेजा गया था। राय हमीरदेव का जवाब एसामी ने अपनी डायरी में दर्ज किया है–


        “जो मेरी पनाह में आ गया है उसे मैं किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचा सकता। चाहे हर दिशा से इस किले पर कब्ज़ा जमाने के लिए तुर्क इकट्‌ठे ही क्यों न हो जाएँ। जो मेरी शरण में आ गए हैं, उन्हें किसी शर्त पर सौंपा नहीं जा सकता। मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ।“


                                                       भतीजों-भांजों के सिर कटवाए, आँखें निकालीं…


         जब अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली से रणथंभौर के लिए निकला था तो तिलपट नाम की जगह पर कुछ दिन ठहरा और राेज आसपास के इलाकों में शिकार किए। वैसे तो अब हिंदुस्तान की एक शिकारगाह बन चुकी थी। उनके लिए जंगलों में जानवर और परिदों के शिकार वैसे ही थे, जैसे देवगिरि और गुजरात के बाद रणथंभौर का शिकार।


       रणथंभौर के रास्ते में अकत खां नाम का एक भतीजा भी अलाउद्दीन के साथ था। एक रात शिकार के बाद लौटते हुए अलाउद्दीन अपने शिविर में नहीं गया। दस-बारह साथियों के साथ एक गांव में ही रुक गया। अकत खां का पद था-वकीलदर का, जो शाही महल और सुलतान के आसपास तैनात रहने वाले कर्मचारियों का इंतजाम करता था। उसे बखूबी पता था कि अपने चचा का कत्ल करके ही अलाउद्दीन सुलतान बना है। जब अलाउद्दीन ऐसा कर सकता है तो अब मैं भी उसका भतीजा हूँ। अब मेरी बारी है!


        अकत खां ने कुछ नवमुसलमानों को साथ लेकर अलाउद्दीन पर हमला बोल दिया और जमकर तीर चलाए। अलाउद्दीन को भी कुछ तीर लगे। ठंड के दिन थे। उसने रुई का मोटा कपड़ा पहना हुआ था, जिसने बुलेट प्रूफ जैकेट का काम किया और वह बच गया।


       उसके बाजू में गंभीर घाव हो गए। अलाउद्दीन के आसपास मौजूद पैदल सैनिकों ने शोर मचा दिया कि सुलतान मर गया है। अकत खां इसे सच मानकर लौट गया और सुलतान की हत्या की घोषणा करके बाकायदा अपनी ताजपोशी करा ली। बरनी लिखता है–


       “सेना में हाहाकार मच गया। हाथियों पर हौदे कसकर दरबार में सामने लाए गए। दरबारी इकट्‌ठा हुए। नकीब नारे लगाने लगे। कुरान पढ़ने वाले कुरान पढ़ने लगे। गायकों ने गाना शुरू कर दिया। लश्कर के प्रतिष्ठित सरदारों ने अभागे बादशाह को बादशाही बधाइयाँ पेश कीं। हाजिबों ने बिस्मिल्लाह के नारे लगाए।


        अब वह हरम की तरफ गया, जहां तैनात कर्मचारी ने उसे अंदर जाने से रोका और कहा कि मुझे सुलतान अलाउद्दीन का सिर दिखाओ तभी अंदर जा सकते हो। वह अपने साथियों के साथ हथियार तानकर वहीं हरम के दरवाजे पर बैठ गया।”


        आप सोच सकते हैं कि राज्य कैसे एक मज़ाक विषय बन गया। लूटपाट और कब्ज़े के लिए रणथंभौर के रास्ते का यह दृश्य क्या कहता है। दिल्ली से रणथंभौर के बीच तिलपट नाम की जगह पर शिविर लगे हैं। खिलजी शिकार का आनंद ले रहा है। उसके साथ पूरा हरम भी है।


       अचानक एक भतीजे को सुलतान बनने की सूझी और यह नज़ारा सामने आया। लेकिन अकत खां एक जल्दबाज मूर्ख ही साबित हुआ वर्ना कहानी उलट चुकी होती और जिस तरह भाले की नोक पर जलालुद्दीन के कटे हुए सिर को कड़ा-माणिकपुर और अवध में घुमाया गया था, वैसे ही तिलपट में लुटेरों के इस काफिले में अलाउद्दीन का कटा हुआ सिर देखा गया होता। दिल्ली पर अगला कब्ज़ा अकत खां का होता और तब आज़ाद भारत के इतिहासकारों को एक और महान सुलतान मिल गया होता!


        उधर घायल अलाउद्दीन अपने करीबी साथियों के साथ शिविर में वापस आता है। एक ऊँची जगह से अपने ज़िंदा रहने का सबूत देता है। बाज़ी पलट गई। अब अकत खां घोड़े पर सवार होकर भागता है। उसे अफगानपुर नाम के गाँव में पकड़ लिया गया।


         वह अलाउद्दीन खिलजी के सामने पेश हुआ। उसका सिर काटा गया और भाले की नोक पर टांगकर पूरी फौज में घुमाकर दिल्ली भेज दिया गया, जहाँ अलाउद्दीन के खिलाफ कुछ और लोग खड़े हो गए थे। ये थे उसके दो भांजे-मलिक उमर और मंगू खां। दोनों को पकड़वाकर रणथंभौर ही भेजा गया। जियाउद्दीन बरनी ने दर्ज किया है–


        “अलाउद्दीन बहुत कठोर स्वभाव और पत्थर दिल आदमी था। उसने अपने दोनों भांजों को अपने सामने ही सज़ा दिलाई। दोनों की आँखें खरबूजे की फांक की तरह चाकू से निकलवाईं। उनके घरबार बरबाद कर दिए गए। उनके सारे मददगार भाग निकले। कुछ कैद कर लिए गए।“


       ठीक इसी वक्त दिल्ली में भी तमाशा चल रहा था। वह रमज़ान के महीने की एक दोपहर थी, जब दिल्ली में यह खबरें उड़ी हुई थीं कि रणथंभौर में सेना बहुत परेशानी में है। सैनिक लगातार मारे जा रहे हैं। लोग बहुत तंग आ चुके हैं। तीन साल से अलाउद्दीन के कारण सब परेशान हैं।


        दिल्ली के एक पूर्व कोतवाल मलिक फखरुद्दीन के एक गुलाम मौला हाजी का उत्पात शुरू हो गया। वह खालसे का शहना यानी सुलतान के कब्ज़े की ज़मीन से होने वाली आमदनी की देखरेख करने वाला अफसर था। उसने बदायूं दरवाजे के पास कोतवाल के घर जाकर तिर्मिजी नाम के कोतवाल को बाहर बुलाया। वह घर में सो रहा था। जूतियाँ पहनकर बाहर आया तो उसका सिर काट दिया गया।


        एक हफ्ते तक अफरातफरी से सराबोर दिल्ली में हाजी मौला ही हुक्मरान था। तब की हेडलाइंस में मौजूद वही अकेला शख्स था। उसकी बगावत के तीसरे दिन ही रणथंभौर में ये खबरें अलाउद्दीन को मिलीं। उसने उलुग खां को दिल्ली भेजा।


        सारे विद्रोही उसके सामने पेश किए गए। सबको एक साथ कत्ल करा दिया गया। पूर्व कोतवाल मलिक फखरुद्दीन भी नहीं बख्शा गया, जिसका इस फसाद से कोई लेना-देना भी नहीं था। उसका कुसूर सिर्फ इतना ही था कि हाजी मौला उसका गुलाम था। बेकसूर फखरुद्दीन के बेटों और पोतों तक को कतार से खड़ा करके सिर कलम कर दिए गए। उनका कोई नामोनिशान भी नहीं रहने दिया गया। दिल्ली के घरों में तब चर्चा के विषय क्या होंगे?


       दिल्ली से लेकर राजस्थान तक 1301 के मार्च और जुलाई के बीच यह सब रक्तपात चल रहा था। अगर हम इन दिल दहलाने वाली घटनाओं को सिर्फ उस समय के अखबार में छपी खबरों की तरह पढ़ें तो समझ में आता है कि भारत को किस तरह बेवजह खूनी लड़ाई के एक मैदान में बदला जा रहा था। चारों तरफ हिंदू राज्यों को शिकार किया गया।


        दिल्ली में मजहबी जीत के जश्न मनाए गए। मुखालफत में सिर उठाने वाले अपनों तक को नहीं छोड़ा गया। आज के जिलानी, गिलानी, उस्मानी, औवेसी, आजम, आज़मी, सलमान, सुलेमान, खान और कुरैशी के बदकिस्मत पुरखे इनमें से कटे सिर वाले कौन होंगे? अलाउद्दीन खिलजी का सितारा वाकई बुलंदी पर था और इसका सीधा अर्थ यह है कि भारत के भाग्य में अंधेरा अभी बहुत गहरा होने वाला था। खिलजी के 20 सालों की खून से लथपथ कहानियाँ अभी और हैं।


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