राष्ट्र निर्माण

             राष्ट्र निर्माण 


किसी भी राष्ट्र की मजबूत बलन्द इमारत के निर्माण के लिए सर्वाधिक आवश्यक है कि उस इमारत के निर्माण में प्रयोग होने वाली इकाई अर्थात प्रत्येक ईंट मजबूत हो और अट बंधन में एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हो। जिस प्रकार इमारत के निर्माण में ईंट का मजबूत होना आवश्यक है ठीक उसी प्रकार राष्ट्र के निर्माण में उसकी प्रत्येक इकाई अर्थात प्रत्येक नागरिक का मजबूत होना आवश्यक है। प्रत्येक नागरिक के मजबूत होने के लिए उसमें कुछ गुण विशेष होने अत्यंत आवश्यक हैं।


अथर्ववेद के बारहवें कांड का प्रथम सूक्त 'भूमि सूक्त' के नाम से सुविख्यात है और अपनी मातृभूमि अपने राष्ट्र के निर्माण के लिए एक नागरिक के रूप में कतिपय गुणों को धारण करना अनिवार्य बताया गया है। 'सत्यं वृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति।' इस मंत्र में नागरिकों के लिए जिन आवश्यक गुणों का वर्णन किया गया है वह बृहत्सत्यं अर्थात अटल सत्य निष्ठा, दूसरा ऋतं- अर्थात ज्ञान, उग्रंक्षात्रतेज, तपः- धर्म का पालन, दीक्षा- हर काम करने में दक्षता, ब्रह्म- ईश्वरीय ज्ञान, यज्ञः- परोपकार, दान और त्याग।


नागरिकों के ये गुण अपनी मातृभूमि, देश व राष्ट्र का पालन पोषण व रक्षण करते हैं। हमारी मातृभूमि हमारी धरती माता हम सभी को धारण करके हमारा पालन पोषण और हमारे सुख के साधन हमें बड़ी सुलभता से उपलब्ध करवाती है। हमारा भी अपनी धारण करने वाली राष्ट्र माता के प्रति कुछ दायित्व बनता है। परस्परतंत्रता के सिद्धांत के अन्तर्गत जिस प्रकार यह भूमि, पृथिवी, भारतमाता हमें धारण कर रही है हम भी वेद मंत्र में दिए गुणों को धारण करके और आपस में सौहार्द, समरसता और प्रेम के अटूट बंधन में बंधकर भारतमाता का पालन पोषण करें।


आइये अब इन गुणा पर एक-एक कर विचार बृहत सत्यं यानि अटल सत्य निष्ठा । हमाग निटा अपने राष्ट्र के प्रति हो जो भूमि हमारा पालन पोषण की है हम उसी के प्रति पूर्णतया समर्पित हो । यदि हम यहाँ, खायें तो यहाँ लेकिन गुण गाएँ किसी अन्य के याति हमारी निष्टा अपनी मातृभूमि के प्रति न होकर किया देश के साथ हो तो हम कृतघ्नता-दोष के अपगयी, देशी कहलाएंगे। सरल शब्दों में हमारी अटल सत्य निष्ठा, सय समर्पण केवल अपने राष्ट्र के प्रति होना चाहिए| 


दूसरा गुण ऋतं अर्थात यथार्थ का ज्ञान होना अन्पन्न आवश्यक है। इस यथार्थ ज्ञान में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद समाया हुआ है यानि हमें अपनी संस्कृति का सम्पूर्ण ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। हमारी पुरातन सनातन वैदिक संस्कृति जिसका ज्ञान सृष्टि के रचयिता परमपिता परमेश्वर ने इस सृष्टि में रहने वाले समस्त प्राणियों के लिए एक नियमावली के रूप में चार ऋषियों के माध्यम से दिया था अर्थात इस वैदिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में पूरी सृष्टि, पूरी धरती और इसके सभी देश आ जाते हैंअन्य सभी मत मतान्तर तो किसी ना किसी स्वार्थ की भावना के वशीभूत प्रतिक्रियास्वरूप चलाए गए हैं। संस्कृति में मनुष्य के आंतरिक जीवन मूल्य और नैतिकता आती है जो सत्य हान के कारण सदा अपरिवर्तनीय रहते हैं। सभ्यता तो उस संस्कृति के बाह्य चिों का नाम है। हम नागरिका के लिए अपने पुरातन सनातन वैदिक संस्कृति के यथार्थ ज्ञान का होना अत्यन्त आवश्यक है।


तीसरा गुण है उग्रं अर्थात् क्षात्र तेज जो कि देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा और उसके विस्तार के लिए १२ का अत्यंत आवश्यक हैबलशाली राष्ट्र के लिए उसके प्रत्येक नागरिक में आत्मिक शारीरिक और सामाजिक बल का होना राष्ट्र की रक्षा के लिए आवश्यक है


चौथा गण तपः अर्थात् धर्म का पालन। मनुष्य के रूप में हमारा धर्म मनुष्यता है। मनुष्य होने के लिए आवश्यक गुण हैं मननशील व विचारवान होना, सभी से स्वात्मवत और यथायोग्य व्यवहार करना, निर्बल धर्मात्माओं का सरक्षण, दुष्टों को दण्ड देते हुए परोपकार के कार्य करनाहमारे धर्म का मल सब सत्य विद्याओं का पुस्तक ईश्वरीय वाणी वेद है। अतः धर्म के पालन के लिए वेद ज्ञान होना भी आवश्यक है। पाँचवां गण है दीक्षा अर्थात् कार्य करने में दक्षता। 'योगः कर्मसुकौशलम्' कहते हुए योगेश्वर कृष्ण ने कार्यों में कशलता वा दक्षता को ही योग कहा है। अतः राष्ट्र की उत्तरोत्तर प्रगति के लिए उसके नागरिकों को अपने अपने कार्यों में पूर्णतया कुशल व दक्ष होना आवश्यक हैं | 


छड़ा गुण है ब्रह्म अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान इसके अन्तर्गत हम मनुष्यों को जीवात्मा-परमात्मा के सत्यस्वरूप और सम्बन्धों का सत्य ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक हैउस एक सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, दयालु, न्यायकारी, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अजर, अमर, अनुपम नित्यपवित्र और सृष्टिकर्ता ईश्वर का बोध होना अत्यन्त आवश्यक है। इससे हम धार्मिक आडम्बरों, मत-मतान्तरों के शोषण से बच सकते हैं।


सातवां गुण यज्ञः जिसे देव दयानन्द ने हम सभी के लिए नित्यकर्म निर्धारित किया है और इस यज्ञ को मनुष्य अपने जीवन में धारण करे तथा अपने आत्मा में ज्ञान की अग्नि को उबुध करके प्रत्येक श्वास प्रति श्वास के साथ सद्कों की आहुति देता रहे। इस यज्ञ में दान, त्याग व परोपकार की भावना समाहित होती हैयदि राष्ट्र के नागरिक के रूप में इन गणों को धारण करके परस्पर सौहार्द, समरसता और प्रेम के अटूट बंधन  में बंध जाये तो उननत राष्ट्र का निर्माण कर सकते है | 


 


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