राजा कुंअर सिंह

राजा कुंअर सिंह


       १८५७ की क्रान्ति में महारानी लक्ष्मीबाई के साथ-साथ सबसे अधिक श्रेय नाना साहब को दिया जाता है, पर बिहार के कुंअर सिंह की कहानी भी बहुत रोमांचकारी हैवह जगदीशपुर के जमींदार थे। उनका अपने इलाके में बड़ा सम्मान था। जब १८५७ का विद्रोह हुआ तो कुंअर सिंह की उम्र ८० वर्ष की थी। फिर भी उन्होंने तलवार उठाने में कोई तलवार उठाने में कोई हिचकिचाहट नहीं की। उनकी संगठन शक्ति भी अद्भुत थी और वह इतनी फुर्ती से अपनी सेना को इधर से उधर ले जाते कि रेल और हवाई जहाज से विहीन उस युग में ऐसा लगता था कि जैसे वह एक साथ दो स्थानों में मौजूद हों।


        वह जंगलों में विद्रोहियों की सभाएँ करते थे। सहसराम के जंगल में कुंअर सिंह ने एक सभा की। उस समय वह एक लड़ाई में हार चुके थे। जगदीशपुर पर मेजर आयर का कब्जा हो चुका था। कुंअर सिंह का महल जला दिया गया था और उनकी सम्पत्ति लूट ली गई थी। ऐसे अवसर पर उन्होंने अपने साथियों से कहा-मुझे दुख इसलिए नहीं है कि मैं हार गया, बल्कि दुख इसलिए है कि मैंने जिस उद्देश्य से विद्रोह किया वह पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है। यदि मेरा कोई बेटा होता तो मुझे भरोसा होता कि वह अपने पूर्वजों की जागीर पर फिर कब्जा कर लेगा


        इस पर उनके छोटे भाई अमरसिंह और दूसरे लोगों ने उनका उत्साह बदाया। तब नए जोश से काम होने लगा। कुंअरसिह चुप बैठने वाले नहीं थे इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें जीवित या मृत पकड़ने पर ५० हजार रुपये का इनाम भी घोषित कर दिया था। नए सिरे से सेना बनाई जा रही थी। धनिकों ने थैलियाँ खोल दी कि विद्रोह को सफल बनाया जाए। इस तरह से एक सेना खड़ी करके कुंअरसिंह फिर पश्चिम की ओर रवाना हुएवह दिल्ली जाना चाहते थे पर इस बीच रास्ते में ही उन्हें मालूम हुआ कि दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया है। वह रीवा पहँचे, वहाँ से वह बांदा गए। बांदा में उनका स्वागत हुआ क्योंकि बाँदा का नवाब विद्रोहियों के साथ मिल चुका था। वहाँ से वह कालपी पहुँचे। तात्या टोपे के साथ उन्होंने कानपुर के आक्रमण में भाग लिया। जब कानपुर की दूसरी लड़ाई में तांत्या हार गए, तो कुंअरसिंह अयोध्या चले गए। वहां नए सिरे से फिर सेना बनी। इस प्रकार वह कभी जीतते, कभी हारते, पर हारते तो हमेशा भाग निकलते, शत्रु के कब्जे में न आते |


      अंग्रेज सरकार उनसे घबराई हुई थी कि यह ८० वर्ष का बूढ़ा कितना तेज है और कितने जोरों के साथ काम कर रहा है। कुंअरसिंह बनारस जाते-जाते आजमगढ़ लौट गए और उन्होंने वहां के किले पर घेरा डाल दिया। वहां भी लड़ाई हुई। कभी अंग्रेज सेना पीछे हटती, कभी वह पीछे हटते। शिवपुर में कुंअरसिंह की सेना ने गंगा पार की। अंतिम नाव में कुंअरसिंह थे। इतने में पीछे से अंग्रेज सेना आ पहुँची। एक गोली कुंअरसिंह की कलाई में लगी। तब उन्होंने बायें हाथ में तलवार ली और दाहिने हाथ को काट कर गंगा में डाल दिया कि कहीं इसके कारण जहर न फैले। इसी घायल हालत में वह जगदीशपुर पहुंचे। वहां से ब्रिटिश झंडा उखाड़ फेंका गया और विद्रोहियों का झंडा फहराने लगा। इसके बाद भी युद्ध हुआ। अंग्रेज सेना में बराबर नए सिपाही आते जाते थे। फिर भी कुंअरसिंह ने जगदीशपुर से डेढ़ मील की दूरी पर एक बार फिर अंग्रेजों को हराया। पर उनका घाव ठीक न हो सका। इस जीत के बाद ही २४ अप्रैल १८५७ को कुंअरसिंह की मृत्यु हो गई।


      नाना साहब भाग निकले और यह पता नहीं है कि उनका क्या हुआ। बहुत से लोग यह मानते थे कि वह नेपाल की तरफ चले गए हैं और वह अमर हैं। यह कुछ उस किस्म की किंवन्दती है जैसे सुभाष बोस के सम्बन्ध में है। 


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