पुत्र निर्माण में पिता का दायित्व


पुत्र निर्माण में पिता का दायित्व


          यक्ष-युधिष्ठिर सम्वाद में एक अन्य प्रश्न है-'किं स्विद् उच्चतरम् च खात्' अर्थात् आकाश से उच्चतर क्या है ? युधिष्ठिर उत्तर देते हैं -खात् पितोच्चरस्तथा' अर्थात् पिता आकाश से भी उच्चतर है। सच में पुत्र के लिये पिता की आकाँक्षायें असीम हैं। और उसी के अनुरुप माता की भांति ही पुत्र निर्माण में पिता का दायित्व भी महान् है। पिता की महिमा भी अपार है। 'पा' रक्षणे धातु से पिता शब्द सिद्ध होता है। सन्तान की सर्व विधि पालना, उसका सर्वविधि रक्षण करने से ही पिता, 'पिता' कहलाने का अधिकारी है। बालक जब घर के आँगन से बाहर जाने लगता है तब माता की अपेक्षा पिता का दायित्व बढ़ जाता है। 'पितृ देवो भव' कहकर शतपथकार ने पिता की इसी महिमा और दायित्व का प्रकाशन किया है। 


        श्री कृष्ण के एक ही पत्नी थी- रुक्मिणी और उन्होंने जिस वीर पुत्र को जन्म दिया था उसका नाम था -प्रद्युम्न। वह श्री कृष्ण के समान ही तेजस्वी था। श्री कृष्ण ने प्रद्युम्न को गृहस्थ जीवन में भी बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य रुप घोर तप के पश्चात् उत्पन्न किया था। कैसे गर्व भरे शब्दों में वे कहते हैं-


ब्रह्मचर्यं महद् घोरं चीत्वां द्वादश वार्षिकम्।


हिमवत् पार्श्वमभ्येत यो मया तपसार्जितः॥


समान व्रत चारिण्यां रुक्मिण्यां योऽन्वजायत।


सनत् कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम मे सुतः॥


                                                                                                -सौप्तिक पर्व


         इस तपस्यापूर्ण साधना का फल था- प्रद्युम्न, जो रुप और होता सम्पन्न शील दोनों में दूसरा कृष्ण था, कृष्ण को इस दिव्य सन्तान पर कितना अभिमान था कि जहाँ कहीं वे प्रद्युम्न का वर्णन करते उसे 'मे सुतः' मेरा पुत्र कहते। धन्य हैं वे व्यक्ति जिनके माता-पिता उनके प्रति ऐसे गर्वीले भाव रखते हों।


       पुत्र निर्माण एक दिव्य कला है, जिसे कृष्णादि महापुरुषों से हम सीख सकते है। पुत्र के उचित खान-पान, शिक्षा-दीक्षा और शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक सुविकास के लिये आवश्यक साधनों को जुटाना पिता का कर्त्तव्य है। साधनहीनता के साथ यदि विवेक शून्यता भी हो तो सन्त तुलसी की यह उक्ति ही घटती है-


जल संकोच विकल भये मीना।


अबुध कुटुम्बी जिनु धन हीना॥


       अतः पत्र निर्माण के इस राष्ट यज्ञ को पति-पत्नी बडी सावधानी, संयम और निष्ठा पूर्वक जब सम्पन्न करते हैं तभी गृहस्थाश्रम को 'वैदिक स्वर्ग' कहना सार्थक होता है। वंश परम्परा का भी सच्चा अर्थ यही है कि पवित्र वैदिक आचार व्यवहार की परम्परा परिवार में अक्षुण्ण बनी रहे।


       जहाँ तक माता-पिता के प्रति पुत्र के कर्तव्यों का प्रश्न है हम पीछे 'पितृ यज्ञ' के प्रकरण में विचार कर चुके हैं। इस सन्दर्भ में सदैव स्मरण रखना चाहिये “कृतघ्नस्य नास्ति निष्कृतिः' कृतघ्नी का कभी कल्याण नहीं हो सकतामाता पिता की श्रद्धा पूर्वक सेवा न करना, उन्हें तृप्त न करना घोर कृतघ्नता है। वेद माता का आदेश है- 'अनुव्रतः पितुः पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।' पुत्र पिता का आज्ञाकारी और माता के अनुकूल मन वाला हो


                                श्री राम का यह वचन तो प्रसिद्ध ही है-


सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु चरण अनुरागी।


तनय मातु पितु सेवन हारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।। 


         परमेश प्रभु कृपा करें वैदिक स्वर्ग का यह दिव्य वातावरण फिर भारत के हर घर में दिखाई पड़ने लगे।


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