पुंसवन संस्कार


पुंसवन संस्कार


       मानव विकास के स्तम्भ स्वरूप जो सोलह संस्कार करने का आदेश महर्षि दयानन्द सरस्वती ने दिया है, उन्हीं की दूसरी कडी का नाम पुंसवन संस्कार है। यह संस्कार भी बालक के जन्म से पूर्व किया जाता है। पोषण को ही पुंसवन कहते हैं। अतः जब यह निश्चय हो जाता है कि गर्भ ठहरगया है तो उसके पोषण की आवश्यकता होती है। गर्भ स्थ शिशु के पोषण का प्रमुख आधारमा जिसके गर्भ में शिशु पल रहा है, ही होती हैअतः इस समय सभी प्रकार की जिम्मेवारियां मां की ही होती हैं । इस समय मां जैसा चाहे उसे ढाल सकती है जन्म के पस्चात् बालक को बिगाडने वाली माताओं को पता होना चाहिये कि यह उनकी भूलों का ही परिणाम है। जो समय उन्हें बालक के निर्माण का मिला था , उस का सदुपयोग उन्होंने नहीं किया । जो ढल गया , तो फिर उसे नया रूप कैसे दें?


      मां के गर्भ में शिशु का शारीरिक व मानसिक दो रूपों में विकास होता है। इन दोनों प्रकार के विकास के लिए दो संस्कारों का विधान किया गया है। जिन्हें पुंसवन व सीमन्तोनयन संस्कार के नाम से जानते हैं। यहां हम पुंसवन संस्कार के विषय में बताने का प्रयास कर रहे हैं :


      जब यह निश्चय हो जाता है कि गर्भ स्थिर हो गया है तो उसकी व उसे गिरने से बचाने के लिए यह संस्कार दूसरे अथवा तीसरे ने किया जाता है। जब स्त्री को ऋतुनाव आना बन्द हो जावे , उसे वमन आने लगे, स्तन व पेट बढने लगे, यह सब गर्भस्थ अवस्था लक्षण हैं। इस अवस्था में उसे कई सावधानियां करनी होती हैं ताकि गर्भपात भी न हो तथा सन्तान पुष्ट भी हो । गर्भस्त महिला को ऊंचे नीचे स्थान पर चलने, कठोर परिश्रम, गैस व भूखे रहने से गर्भ मखता है। ऊचे स्थानों पर चलने से ,गर्भ दबाव, डरावने शब्द व सपने से या सीधे पडे रहने से गर्भस्थ बालक मर सकता हैगर्भवती केकई प्रकार के कई गलत आचरण होने वाली सन्तान के पागल पन व कई प्रकार के अन्य रोगों का कारण होते हैं |


      अतः गर्भ धारण से लेकर प्रसव पर्यन्त गर्भवती सदा प्रसन्न रहे, आभूषण व अच्छे वस्त्र पहने,सभी प्रकार के धर्म कर्म करते हुए वैसा ही व्यवहार करे जैसा वह सन्तान को बनाना चाहती है। ऐसी कोई भी चेष्टा न करे जिससे गर्भ को हानि हो । अपने खाने में भी पौष्टिक तत्वों का प्रयोग करे। कठोर व वातकारी पदार्थों का सेवन न करे।


      इस संस्कार का उद्देश्य गर्भस्थ संतान की रक्षा होने के कारण ही महर्षि ने लिखा है कि गर्भ के दूसरे व तीसरे महीने वट वृक्ष (बरगद) की जटा व पत्ते गर्भिणी स्त्री के दाएं नासा पुट में सुंघाने उपयोगी हैंइन दिनों ब्रह्मी या गिलोय का खाना भी लाभकारी हैइसी प्रकार अन्य ढंग से भी उसके शरीर को बनाए रखने के लिए उपाय करने चाहिये ।योग्य चिकित्सकों का परामर्श व मार्गदर्शन सदा प्राप्त करते रहें । इन दिनों गर्भवती की पुष्टि का ध्यान र आवश्यक होता हैप्रत्येक माह गर्भवती की अवस्था बदलती एक उस के अनुसार ही उसके खानपान व सावधानिायों में भी पशि आता रहता है। अतः योग्य चिकित्सक व किसी वयोवृद्ध से निर परामर्श करते रहना चहिये तथा समय समय पर यथावश्यक खान पान में परिवर्तन करते रहना चाहिये कैल्शियम की मात्रा बढाएं व कब्ज किसी भी अवस्था में नहीं होने दें।


      पति अपनी पत्नि का सार्वजनिक रूप से हृदय स्पर्श करे। यह न केवल प्रेम का प्रतीक ही है अपितु यह घोषणा भी करता है कि वह आने वाली बडी जिम्मेवारी को खुशी से पूरा करने के लिए तैयार हैसभी चाहते हैं कि उनकी सन्तान पुरुषत्व से युक्त हो अर्थात् हृष्ट पुष्ट व पौरुष से भरपूर हो । सन्तान में यह गुण स्थापित करना ही पुंसवन संस्कार का मुख्य कार्य है। जहां तक सन्तान के पुत्र या पुत्री का होना है , यह गर्भ निश्चित होने के पश्चात् किसी भी प्रकार बदला नहीं जा सकता, ऐसा शास्त्रों का मानना है |


      इस संस्कार का एक अन्य उद्देश्य यह भी है कि गर्भ जिन कारणों से गिरने व नष्ट होने की सम्भावना होती है, सावधानी पूवर्क उनसे बचाते हुए प्रस्वावस्था तक उसे पूर्ण स्वस्थ रखा जा सके । एतदर्थ कुछ औषध भी बताई जाती हैं तथा सावधानियां भी , जिनका प्रयोग करते हुए परिपुष्ट सन्तान को जन्म दिया जा सकता है। 


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