पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धान्त

पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धान्त


       ऋषि दयानन्द को वेदोक्त होने से सर्वथा मान्य है। ईसाई और मुसलमानों के मत में इस प्रश्न का कोई युक्ति युक्त उत्तर नहीं कि क्यों कोई अंगहीन, अस्वस्थ या दरिद्री के घर पैदा होता है, और कोई सुन्दर, स्वस्थ, धनी घराने मेंकेवल वैदिक धर्म में इसका उत्तर मिलता है कि पूर्वजन्म के पुण्य-पाप के आधार पर यह भेद निर्भर है। ईसाई, मुसलमान, 'खुदा की मर्जी कहकर अपने खुदा को अन्यायी और निष्ठुर सिद्ध कर देते हैं। अतः कर्म फल और पुनर्जन्म का सिद्धान्त अकाट्य है। ईश्वर कर्मों का फलदाता है और न्याय-नियम के कर्मों का फल अवश्य मिलता है। कोई ईश्वर का अवतार, 'खुदा का पैगम्बर' या 'खुदा का बेटा' दुष्कर्मों के फल-भोग से किसी को बचा नहीं सकता। जैसी मान्यता हजरत मुहम्मद के सम्बन्ध में मुसलमानों की है, इसी प्रकार की मन्दिरों में भोग-प्रसाद चढ़ाकर या गंगा-यमुना आदि में स्नान करने से पापों के फल से छूटने की बात है। ऐसी अमानवीय मान्यताएँ मनुष्य को मनुष्यत्व से दूर ले जाती है।


         महर्षि दयानन्द ने ऐसी ही अवैदिक और अमानवीय मान्यताओं का सत्यार्थ प्रकाश के ११ से १४वें समुल्लास तक में प्रतिवाद किया है। ११ व १२वें समुल्लास में पौराणिक तथा बौद्ध, जैन मतों से सम्बन्धित तथा १३-१४वें समुल्लास में क्रमशः ईसाई और इस्लाम मत की ऐसी ही पाप-पोषक मान्यताओं का खण्डन महर्षि ने किया है-


'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाऽशुभम्'-


          के सिद्धान्त में उनकी दृढ़ आस्था थी। वे 'आचारः परमो धर्मः' तथा 'आचारहीन न पुनन्ति वेदाः' अर्थात् आचरणहीन (दुराचारी) को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते की मान्यता में विश्वास रखते थे।


        स्वर्ग नरक- पवित्र वेदों के अनुसार स्वर्ग-नरक का कोई विशेष स्थान नहीं है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं-


        'जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह 'स्वर्ग' कहलाता है और जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको 'नरक' कहते हैं।'


         पशु बलि-पशुओं के बलिदान से ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। धर्म या यज्ञ के नाम पर मन्दिर आदि में पशु हिंसा करना घोर पाप है। अपने बच्चों की कामना के लिए दूसरों (गूंगे पशुओं) के गले काटना, अपनी और देवी-देवताओं की बुद्धि का अपमान करना हैइन्द्रियों का दमन, परोपकार, अग्निहोत्रादि अनुष्ठान, भले कार्यों में दान, विद्वानों का सत्संग, स्वाध्याय आदि 'यज्ञ' कहलाते हैं। अश्वमेध में घोड़ों की आहुति नहीं, अलंकार से अश्व (इन्द्रियों) के विषय-विकारों की आहुति देना ही अभिप्रेम है। अथवा अश्वं वै स्वाहा अर्थात् राष्ट्रहित के लिए अपने निजी हितों का बलिदान कर देना ही 'अश्वमेध यज्ञ' है और पशु अर्थात् पाशविक वृत्तियों का बलिदान या त्याग ही 'पशुबलि' है।


         आहार शुद्धि-शूद्रों या अपने से भिन्न वर्ण के साफ सुथरे स्त्री पुरुष द्वारा पकाये हुए भोजन से धर्म भ्रष्ट नहीं होता, परन्तु अधर्म, अन्याय, घूस, ब्लैक मार्केट, मिलावट आदि पाप कर्मों से प्राप्त होने वाले धन से खरीदे हुए अन्न के खाने से अवश्य धर्म भ्रष्ट होता है। (जात्याभिमानी जन हृदय पर हाथ धर कर अपनी-अपनी कमाई और जीवनी को इस कसौटी पर परखें)।


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