प्राणों से प्रिय प्रभु

प्राणों से प्रिय प्रभु


प्राणों से प्रिय प्रभु हर हृदय में छिपा,


उसे बाहर जगत् में तू क्यों खोजता?


मन्दिरों, मस्जिदों, दूर स्थानों में,


नाना कष्टों को जाकर तू क्यों भोगता?


सर्वव्यापक है प्रत्येक कण में रमा,


सारा ब्रह्माण्ड उसकी शक्ति से है थमा;


रात में देखो निस्सीम जगमग गगन


किसी स्थल विशेष में ही क्यों सोचता?


करना चाहो अगर उसकी अनुभूति को


साधना-योग करो, तज प्रतिमूर्ति को;


मूर्ति में वह मिलेगा कभी भी नहीं


व्यर्थ उसके समक्ष तू क्यों लोटता?


कोई भी वस्तु उसको नहीं चाहिए


भले बहुमूल्य धातु अर्पित कर आइये;


वेद अनुसार स्वरूप जाने बिना


उसके दर्शन की लिप्सा में क्यों दौड़ता?


बाह्य आडम्बरों से बहुत दूर वह,


उर में खोजो प्रकाश से भरपूर वहा


मिलेगा वह सदा अपने अन्दर ही में


फिर तू बाहर निराशा-आँसू क्यों पोंछता?


उसको जाने बिना मानता ही रहा,


जिन्दगी भर अकर्म साधता ही रहा;


वेदपथ पर कदम को बढ़ाए बिना 


उस प्यारे प्रभु को तू क्यों कोसता?


                                                                                 • ओमप्रकाश आर्य 


                                                                 आर्य समाज, रावतभाटा, वाया कोटा (राज.)   


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