प्राणायाम


प्राणायाम 


(महर्षि दयानन्द के शब्दों में)


       प्राण अर्थात् श्वास और आयाम अर्थात् लम्बाई, तात्पर्य--श्वास की लम्बाई को 'प्राणायाम' कहते हैं।


      प्राणायाम करने की विधि-आचमन कर दोनों हाथ धो, कान, आंख, नासिका आदि का शुद्ध जल से स्पर्श करके, शुद्ध देश (स्थान) पवित्र आसन पर जिधर की गोर का वाय हो उधर को मुख करके (बैठकर) नाभि के नीचे से मूलेन्द्रिय को ऊपर संकोच करके, हृदय के वायु को बल से बाहर निकाल के यथाशक्ति रोके। पश्चात् धीरे-धीरे भीतर लेके भीतर थोड़ा सा रोके, यह एक प्राणायाम हुआ।......इस रीति से कम से कम तीन और अधिक से अधिक इक्कीस प्राणायाम करे।........नासिका को हाथ से कभी न पकड़े, किन्तु ज्ञान से ही उसके रोकने को प्राणायाम कहते हैं।.... मन में "ओ३म्" इसका जाप करता जाए। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।


      प्राणायाम के चार प्रकार-एक "बाह्यविषय" अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना। दूसरा "आभ्यन्तर" अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाए उतना रोकना। तीसरा "स्तम्भवृत्ति" अर्थात् एक ही बार जहां का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा "बाह्याभ्यन्तराक्षेपी' अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उससे विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाए। ऐसे एक दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रुक कर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ स्वाधीन होते हैं।


      प्राणायाम के लाभ-जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रति क्षण उत्तरोत्तर काल म अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। बल पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि सूक्ष्म रूप हो जाती है कि जो बहत कठिन और सक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है।


दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।


                तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥ (मनुस्मृति)


      अर्थ-जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण (सोना) आदि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।


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