पितृ यज्ञ


पितृ यज्ञ 


      वैदिक मूर्धन्य आदर्श मातृ-पितृ भक्त श्रीराम के यह शब्द कितने प्रेरक हैं- आज्ञा के बिना पिता का कार्य सम्पादन करने वाला पत्र उत्तम है, आज्ञा पाने पर जो पिता का कार्य करता है वह मध्यम पुत्र है तथा जो आज्ञा पाने पर भी उसका पालन नहीं करता वह तो मल स्वरुप है।


      श्रीराम जीवन की एक झाँकी देखियेरात्रि को सोते समय श्रीराम यह विचार करते-करते सोते हैं


जनमे एक संग सब भाई, भोजन शयन केलि लरिकाई।


करन बेध उपवीत विवाहा, संग संग भये उछाहा॥


विमल वंश यहु अनुचित एकू, बन्धू विहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥


       तो श्रीराम को पता है कि प्रातः होते-होते उन्हें अयोध्या का चक्रवर्ती सम्राट बनाया जाना हैकिन्तु सभी जानते हैं कि ऋषियों की पूर्व योजनानुसार रात्रि में ही चित्र बदल जाता है और प्रात: उठने पर श्रीराम को आदेश मिलता है-


तापस वेश विशेष उदासी


चौदह बरस राम बनवासी॥


       श्रीराम के चेहरे पर यह सुनकर विषाद की रेखा तो क्या उलटे वे माँ कैकेयी द्वारा कुछ सन्देह करने पर कहते हैं-


भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।


नियुक्तो गुरुणा पित्रा, नृपेण च हितेन च।


तब्रूहि वचनं देवि ! राज्ञो यदभि कांक्षितम्।


करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभि भाषते॥


-अयोध्या काण्ड १८-२९-३०


      मैं हलाहल विष पीने और जीवन समाप्त कर देने वाले समुद्र में डूबने को तैयार हूँ। चाहे जो हो पिताजी मुझे जो आज्ञा करेंगे, उसे मैं जरुर करूँगा । माता ! आप स्मरण रखें कि राम का दो वचन नहीं बोलता अर्थात् जो एक बार कह देता है उसे अब पूरा करता है' सन्त तुलसी के शब्दों में-


सुनु जननी सोई सुत बड़भागी, जो पितु-मातु चरण अनुरागी


तनय मातु-पितु सेवन हारा। र्लभ जननि सकल संसारा | 


       हे पितृ भक्त राम ! आप धन्य हैं, राम का यह 'रामत्व' ह तो वह वस्तु है जिसके कारण ९ लाख वर्षों के बाद भी राम आर्य जाति के हृदय-हार बने हुए हैं। श्रीराम के पुजारी प्रत्येक सद्गृहस्थ आर्य का यह पितृयज्ञ नित्य कर्त्तव्य है।


      पितृयज्ञ- अग्निहोत्र विधि पूर्ण करके तीसरा पितृयज्ञ करे। इसमें जीवित देव अर्थात् विद्वान, ऋषि अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने वाले (अन्वेषक, चिन्तक, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि) और पितर अर्थात् माता-पिता, सास, श्वसुर पितामह (दादा) पितामही आदि वृद्ध बान्धव तथा ज्ञानी परमयोगियों की, जो प्रत्यक्ष विद्यमान (जीवित)। हैं, सेवा करनी होती है। इसके दो भेद हैं, (१) श्राद्ध और (२) तर्पण। यह श्राद्ध और तर्पण आदि कर्म विद्यमान अर्थात् जो प्रत्यक्ष हैं. उनमें ही घटता है, मृतकों में नहीं और इनके अभिप्राय से ही वेदों तथा मनुस्मृति आदि आर्ष ग्रन्थों में कहा गया है। (प० म०वि०,स0 वि0, स० प्र0)


      श्राद्ध और तर्पण पृथक् २ कर्म नहीं, एक ही के दो रुप हा राहस्थों द्वारा जो इन लोगों का अत्यन्त प्रीति पूर्वक श्रद्धा से सेवन करना है, सो श्राद्ध और जिस सेवन कर्म से देव-ऋषि पितर सुख यक्त होते हैं, वही तर्पण कहाता हैकर्ता-गृहस्थ की दृष्टि से, इस सेवन सत्कार का नाम श्राद्ध और भोक्ता देव-ऋपि पितर की दृष्टि से, इसी का नाम तर्पण है।


      उनके सेवन करने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक गहस्थ 1) अपने इन पितरों के अन्न-वस्त्र निवास तथा कार्य के साध नों की समुचित व्यवस्था, यथाशक्ति दैनिक रुप से साप्ताहिक मासिक अथवा साम्वत्सरिक अर्थात् वार्षिक रुप से, करता रहे। इससे वे शारीरिक रुप से तृप्त होंगे। (२) साथ ही इनसे सत्य विद्या-न्याय धर्म की शिक्षा व उपदेश ग्रहण कर अपना चरित्र सधारे, इससे वे आत्मिक सन्तोष व मानसिक सुख अनुभव करेंगे।


      यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि श्राद्ध और तर्पण कर्म का मृतक के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु आज वैदिक सत्य पथ से भटक जाने और शब्दों का सत्यार्थ भुला देने से हमारे गृहस्थों में जीवित माता-पिता, सास- श्वसुर का श्राद्ध एवं तर्पण न होकर बल्कि उलटे उनके जीवन काल में उन्हें हर प्रकार से अपमान और दुर्दशा का जीवन बिताने के लिए बाध्य करके मरने के बाद कारज (मृतक भोज),गरुण पुराण की कथा, शैयादान, गोदान, गया में पिण्डदान आदि दुनियाँ भर का अडंगा किया जाता है। हड्डियों को गंगा में डाला जाता और क्वार के महिने में हर साल १५ दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है। किसी ने कितना ठीक लिखा है-


जियत पिता से दंगम दंगा


मरे पिता पहुँचाये गंगा॥


       इस विषय पर अधिक जानने के लिए सत्य प्रकाशन से प्रकाशित मृतक श्राद्ध समीक्षा ट्रैक्ट अवश्य पढ़ें। यहाँ इतना ही समझ लें कि यह मृतक श्राद्ध सर्वथा अवैदिक और त्याज्य हैवैदिक स्वर्ग में तो जीवित माता-पिता और गुरुजनों को श्रद्धा पूर्वक सेवा तथा अपने सत्कर्मों से गुरुजनों की तृप्ति रुप श्रद्धा और तर्पण वर्ष में १५ दिन नहीं वरन् प्रतिदिन होना ही चाहिए। (इस वैदिक सत्य को पुनः उद्घाटित करने के लिए आर्य जाति और विश्वमानवता सदैव ही ऋषि दयानन्द की ऋणी रहेगी।)


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