पति-पत्नी व्यवहार सार

पति-पत्नी व्यवहार सार


         विवाह संस्कार (उत्तर विधि) के सहभोज प्रकरण में ये कुछ मन्त्र आते हैं-


ओं अन्नपाशेन मणिना प्राण सूत्रेण प्रणिना।


बध्नामि सत्यग्रन्थिना मनश्च हृदयं च ते॥


         अर्थात् हे पूज्य देव वा हे मान्या देवि ! जैसे अन्न के साथ प्राण, प्राण के साथ अन्न तथा २ और प्राण का अन्तरिक्ष के साथ सम्बन्ध है वैसे (ते) तुम्हारे ( हदयम्) हृदय (च मनः) और मन (च) और चित्त आदि को (सत्य ग्रन्थिना) सत्यता की गाँठ से बघ्नामि) बाँधती अथवा बाँधता हूँ।


          गृहस्थ जीवन सत्य जीवन है, पवित्र जीवन है- सत्य की ग्रन्थि से बँधा है गृहस्थ जीवन के पवित्र सम्बन्धों, कर्त्तव्यों और दायित्वों को मिथ्या बताने वाले 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की रट लगातार कर्त्तव्य क्षेत्र से पलायन करने वाले भोले लोग इस जीवन सत्य के रस को भला क्या जान सकते हैं ? दूसरा मन्त्र है-


ओं यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम।


यदिदं हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव॥


         हे पूज्य स्वामिन् अथवा हे मान्या देवि ! जो यह तुम्हारा (हृदयं) आत्मा वा अन्त:करण है (तत्) वह (मम) मेरा (हृदयं) आत्मा वा अन्त:करण के तुल्य प्रिय (अस्तु) हो। और (मम यदिदम् हृदयम्) मेरा जो यह आत्मा प्राण और मन है (तत् तव हृदयम् अस्तु) सो तुम्हारे आत्मादि के तुल्य प्रिय सदा रहे।


         पति-पत्नी व्यवहार का कैसा दिव्य आदर्श है, यहाँ। पति-पत्ता का मिलन दो शरीरों का नहीं दो आत्माओं का शाश्वत मिलन है। जो एक का हृदय है, वही दूसरे का। जो एक की भावनायें और निष्ठायें हैं, वही दूसरे कीजो एक का जीवन-व्रत है, वही दूसरे - कासच में वे दो शरीर पर एक प्राण हैं। एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैंएक दूसरे का जीवन है, सम्बल है, शक्ति है, आश्रय है। यहाँ कैसी विषमता कैसा छोटा-बड़ा पन। पति सेवा और पत्नी रक्षण का क्रम लोक व्यवहार की दृष्टि से ही है, अन्यथा वे तो दोनों मिलकर एक इकाई हैं।


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