पति-पत्नी व्यवहार

पति-पत्नी व्यवहार


       यहाँ हम एक आदर्श पत्नी श्री सीता जी को श्रीराम की पद सेवा करते हुए देख सकते हैं। नारी ने स्वेच्छया इस पवित्र कर्तव्य का वरण किया है। इसे नर नारी या पति पत्नी के बीच किसी प्रकार की छुटाई-बढ़ाई का विचार करना एक बड़ी भूल ही होगी।


गृहस्थ रूरी गाड़ी के दो पहिये


       आकार-प्रकार में बिल्कुल समान होते हैं। थोड़ा भी फर्क होने पर वे गाड़ी का भार न ढो सकेंगे- गाड़ी चल न सकेगी। पहिये के सभी अरे इन पहियों के केन्द्र से जुड़े रहते हैं और ये दोनों पहिये एक धुरी से जुड़े रहते हैं। बस, हमें याद रखना है कि गृहस्थ रुपी महान् रथ या (गाड़ी) के दो पहिये हैं- पति और पत्नी। इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं। गृहस्थ-गाड़ी के सुसंचालन के लिये पहली आवश्यकता है- इनमें विचारों और आदर्शों का ऐक्य तथा समानता। * परिवार के अन्य सभी सदस्य सदस्यायें तो अरों की भाँति इन्हीं दो के हृदय केन्द्रों से जुड़े रहते हैं, और इन दोनों के हृदय केन्द्रों को जोड़ती है-प्रेम-धुरी। प्रेम, आत्मीयता व सद्भावना की धुरी गृहस्थ जीवन का मूलाधार है।


         विवाह वेदी पर पति-पत्नी सर्व प्रथम इसी आत्म-भाव और प्रेम की घोषणा निम्न प्रतिज्ञा-मन्त्र द्वारा करते हैं-


सञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानिनौ।


सं मातरिश्वा सं धाता समुदेष्ट्री दधातुनौ॥ 


         अर्थात् उपस्थित जनों को दोनों विश्वास दिलाते हैं कि- हम दोनों के हृदय आपस में इस प्रकार मिले हैं जैसे दो स्थानों के जल (जिन्हें अलग करना असम्भव है।) हमें एक दूसरे की आवश्यकता है जैसे प्राणवायु की -(एक दूसरे के बिना मानों हम जीवित नहीं रह सकते) हम एक दूसरे का इस प्रकार से हित और कल्याण चाहते हैं जैसे सत्योपदेशक श्रोता का और हम विश्व नियामक परमात्मा की भाँति परस्पर एक दूसरे को धारण करने का व्रत लेते हैं ।


         विवाह संस्कार की विभिन्न विधियों में पति-पत्नी धर्म या पति-पत्नी व्यवहार की श्रेष्ठतम शिक्षायें हैं। आगे के पृष्ठों में उन पर संक्षेपतः विचार किया गया है।        


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