पर्यावरण के बारे में सोचें
मनुष्य और पर्यावरण का सम्बन्ध काफी पुराना और गहरा है। पर्यावरण के बिना जीवन ही सम्भव नहीं है। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित पंचतत्त्व क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैंये तत्व आवश्यकतानुसार समस्त जीवों के उपयोग उपभोग में अपनी भूमिका निभाते हैं। मानव अपनी आकांक्षाओं के लिए इन तत्वों पर निर्भर हैं। इनका एक निश्चित तारतम्य जीवन को नए प्रतिमान देता है, पर जब किन्हीं कारणों से इनका संतुलन बिगड़ता है तो पर्यावरण संतुलन भी बिगड़ता है, जो अन्तत: न सिर्फ मानव बल्कि सभ्यताओं को प्रभावित करता है। ऐसे में जरूरत है कि इनका दोहन नहीं बल्कि सतत विकास द्वारा संवेदनशील उपयोग किया जाए।
प्रभावित पर्यावरण के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता आज भयावह परिणाम उत्पन्न कर रही है। एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, उस पर से प्रकृति का अनुचित दोहन, वाकई यह संक्रमणकालीन दौर है। यदि हम अभी भी नहीं चेते तो सभ्यताओं के अवसान में देरी नहीं लगेगीवैश्विक स्तर पर देखें तो धरती का मात्र 31 प्रतिशत क्षेत्र वनों से आच्छादित है, जबकि 36 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र प्रतिवर्ष घट रहा है। नतीजा यह है कि 1141 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं जंगलों पर निर्भर 1.6 अरब लोगों की आजीविका खतरे में है। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण ने जल-थल-नभ किसी को भी नहीं छोड़ा है। पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है, जिसमें करीब 0.3 फीसदी में से भी मात्र 30 फीसदी जल ही पीने योग्य बचा है। तभी तो 110 करोड़ लोगों को दुनिया में पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता। नतीजन, दुनिया में प्रतिवर्ष 18 लाख बच्चे पानी की कमी और बीमारियों के कारण दम तोड़ देते हैं। वहीं प्रतिवर्ष 22 लाख लोग जल जनित बीमारियों के चलते मौत के मुंह में समा जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2025 तक 2.9 अरब अतिरिक्त लोग जल आपूर्ति के संकट में इजाफा ही करेंगे। यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिस गंगा नदी को जीवनदायिनी माना जाता है, उसमें 1 अरब लीटर सीवेज मिलता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि गंगा में बैक्टीरिया का स्तर 2800 गुना बढ़ गया है। इसी प्रकार यमुना नदी की बात करें तो अकेले राजधानी दिल्ली का 57 फीसदी कचरा यमुना में डाला जाता है। यहा 3053 मिलियन लीटर सीवेज पानी यमुना में हर रोज बहाया जाता है। कहना गलत न होगा कि 80 फीसदी यमुना दिल्ली में ही प्रदूषित होती है। सिर्फ जल क्यों जिस वायु में हम सांस लेते हैं, वह भी प्रदूषण से ग्रस्त है। पिछले पांच सालों में वायु में 8-10 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ी है, नतीजन 5 करोड़ बच्चे हर समय वायु प्रदूषण से बीमार होते हैं। अकेले एशिया में 53 लाख लोग प्रदूषित वायु के चलते मौत के मुंह में चले जाते हैं। हाल ही में अमेरिका के येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की ओर से 132 देशों में कराए गए वायु गणवत्ता अध्ययन की मानें तो वायु प्रदूषण के मामले में टेशों में शामिल है। 132 देशों में मिला है. जबकि चीन को 116वां। एक तरफ बढ़ती जनसख्या, पुस बरती जनसंख्या, दूसरी तरफ बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण, ऐसे में उनके बीच परस्पर सन्तुलन की शीघ्र आवश्यकता है। मानव और पर्यावरण के मध्य असंतुलन से जहां अन्य जीव-जन्तुओं व वनस्पतियों की प्रजातियां नष्ट होने के कगार पर हैं, वहीं ग्रीन हाउस के बढ़ते उत्सर्जन व ग्लोबल वार्मिग से स्वच्छ सांस तक लेना मुश्किल हो गया है। मानवीय जीवन में बढती भौतिकता एवं प्रकृति व पर्यावरण के प्रति बढ़ती उदासीनता, लापरवाही, बेपरवाही व दोहन ने विनाश लीला का ताण्डव आरम्भ कर दिया है। पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के चलते जलवायु परिवर्तन भी हो रहा है। एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से हर वर्ष लगभग तीन लाख लोग मर रहे हैं, जिनमें से अधिकतर विकासशील देशों के हैं। ग्लोबल झुमेनिटेरियन फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार 1906 से 2005 के मध्य में पृथ्वी का तापमान 0.74 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है और हाल के वर्षों में इसमें उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 2100 तक इस तापमान के न्यूनतम दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने के आसार हैं ।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2030 तक वैश्विक ऊर्जा की जरूरत में 60 फीसदी की वृद्धि होगी। ऐसे में निर्वहनीय विकास के लिए तत्काल ध्यान दिये जाने की जरूरत है।
कोयला और पेट्रोल के अधिकाधिक उपयोग से वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के संतुलित तापमान के लिए वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा 0.3 फीसदी रहना जरूरी है। इसमें असंतुलन भयावह स्थिति पैदा कर सकता है। ओजोन परत जहा; पराबैंगनी किरणों से धरा की रक्षा करती है, वहीं नित-प्रतिदिन बढ़ते एयर कंडीशनर व रेफ्रीजरेटर एवं प्लास्टिक उद्योग में उपयोग किए जाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन से ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है। इससे जहां पराबैंगनी किरणों के प्रवाह के चलते त्वचा कैंसर जैसी बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं, वहीं ग्लेशियरों के पिघलने के चलते तमाम द्वीपों व देशों पर खतरा मंडरा रहा है। आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन पर 2004 में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में विश्व के अन्य भागों की अपेक्षा तापमान वृद्धि दुगनी गति से हो रहा है। वस्तुतः आर्कटिक क्षेत्र में बर्फीली सतहें अधिक कारगर ढंग से सूर्य उष्मा का परिवर्तन करती हैं, पर अब तापमान बढ़ने एवं हिमखण्डों के तीव्रता से पिघलने के कारण अनाच्छादित भूक्षेत्र व सागर तल द्वारा अपेक्षाकृत अत्यधिक ऊष्मा ग्रहण की जा रही है, जिससे यह क्षेत्र अत्यन्त तीव्र गति से गर्म होता जा रहा है। ऐसे में महासागरों का जल स्तर बढ़ने से तमाम द्वीपों व देशों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इससे जहां जनसंख्या पलायन की समस्या उत्पन्न हुई है, वहीं समुद्री जीव जन्तुओं के विलुप्त होने की संभावनाएं भी उत्पन्न हो गई हैं। वस्तुतः जब हम पर्यावरण की बात करते हैं तो यह एक व्यापक शब्द है। जिसमें पेड़-पौधे, जल, नदियां, पहाड़ इत्यादि से लेकर हमारा समूचा परिवेश सम्मिलित है। हमारी हर गतिविधि इनसे प्रभावित होती है और इन्हें प्रभावित करती भी है। कभी लोग गर्मी में ठंडक के लिए पहाड़ों पर जाया करते थे, पर वहां भी लोगों ने पेड़ों को काटकर रिसोर्ट और होटल बनाने आरम्भ कर दिए। कोई यह क्यों नहीं सोचता कि लोग पहाड़ों पर वहाँ के मौसम, प्रकृतिक परिवेश की खूबसूरती का आनन्द लेना चाहते हैं, न कि कंक्रीटों का। पर लगता है जब तक यह बात समझ में आयेगी तब तक काफी देर हो चुकी होगी। ग्लोबल वार्मिंग अपना रंग दिखाने लगी है, लोग गर्मी में 45 डिग्री सेल्सियस पर तापमान के आने का रोना रो रहे हैं, पर इसके लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहता। सारी जिम्मेदारी बस सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं की है। जब तक हम इस मानसिकता से नहीं उबरेंगे तब तक पर्यावरण के नारों से कुछ नहीं होने वाला है। आइये आज कुछ ऐसा सोचते हैं, जो हम कर सकते हैं जिसकी शुरुआत हम स्वयं से या अपनी मित्र मण्डली से कर सकते हैं। हम क्यों सरकार का मुंह देखें? पृथ्वी हमारी है, पर्यावरण हमारा है तो फिर इसकी सुरक्षा भी तो हमारा कर्त्तव्य है। कुछ बातों पर गौर कीजिए. जिसे हम अपने परिवार और मित्रजनों के साथ मिलकर करने की सोच सकते हैं। आप भी इस ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं। जैव विविधता के संरक्षण एवं प्रकृति के प्रति अनुराग पैदा करने हेतु फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किए जायें। स्कूल में बच्चों को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है। इसी प्रकार सूखे वृक्षों को तभी काटा जाये, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाए। जीवन के यादगार दिनों मसलन-जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करना चाहिए ताकि सतत संपोष्य विकास की अवधारणा निरन्तर फलती-फूलती रहे। यह और भी समद्ध होगा, यदि अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किए जाएं जहां हर पीढ़ी द्वारा लगाए गए पौधे मौजूद हों। यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी। आज के उपभोक्तावादी जीवन में इको फ्रेंडली होना बहुत जरूरी है। पानी और बिजली का अपव्यय रोककर हम इसका निर्वाह कर सकते हैं। क्लश का इस्तेमाल कम से कम करें। शानो-शोकत में बिजली की खपत को स्वतः रोककर लोगों को प्रेरणा भी दे सकते हैं। इसी प्रकार री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोककर टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग किया जा सकता है।
मानव को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सरक्षा को ललकार कर किया गया कोई भी कार्य समची मानवता को खतरे में डाल सकता है। अतः जरूरत है कि अभी से प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण के प्रति सचेत हुआ जाए और इसे समद्ध करने की दिशा में तत्पर हुआ जाए।- टाईप 5 निदेशक बंगला. जीपीओ कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद-211001