पर्वो की महिमा और प्रेरणा


         सृष्टि के आरंभ में सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव के जीवन लक्ष्य के अनुसार अर्थात् “ईश्वर साक्षात्कार" हेतु धर्मपालन का आदेश ऋषियों ने दिया था। चिरकाल तक वह परंपरा चलती रही, किन्तु कालयापन के साथ वह परंपरा विकृत और समाप्त प्राय हो गई। ऐसी दशा में कतिपय क्रान्तदर्शी दिव्यात्माओं ने मानव जाति के उद्धारार्थ कुछ पवों का आयोजन किया, जिससे कि निज जीवन की उन्नति के साथ समूचे विश्व का भी कल्याण हो सके। वे पर्व ऋतु संबधी तो थे ही। क्योंकि संपूर्ण वर्ष ऋतुओं में विभक्त था। राष्ट्र एवं विश्व के कल्याणार्थ वे पर्व ऋतु अनुकूल जीवन पद्धति का प्रतिपादन करते थे l 


          समय पर कुछ विशेष घटनाओं के कारण भी कुछ पर्यों का सूत्रपात हुआ। कुछ महानुरुषों के जन्मदिन एवं बलिदान दिवस सोत्साह मनाने के कारण आत्मगौरव हीन राष्ट्र के नागरिकों में नवचेतना जागृत करने में भी सफलता मिली। आगे चलकर पराधीन राष्ट्र के स्वातन्त्र्य प्राप्ति तथा शासन पद्धति के परिष्कारार्थ विधान का निर्माण और उसके अनुपालन (लागू) करने के सुदिन हमारे राष्ट्रीय पर्व के रूप में प्रारंभ और विकसित हुए। सार यह कि जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिए पर्व परंपरा प्रारंभ हुई। 


         विश्व में प्रभूत ईस्वी संवत् के प्रथम मास में एवं विक्रम संवत्सर के शुभ उत्तरायणकाल में मकर संक्रांति ऋतु पर्व “राष्ट्रीय पर्व गणतन्त्र दिवस" सोत्साह सम्पन्न हुए। विशेष रूप से "आतंकवाद से त्रस्त होते हुए भी राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस उत्पातरहित तथा सकुशल सम्पन्न होने के लिए प्रभु का कोटिशः धन्यवाद है इसलिए जनसाधारण के लिये स्वास्थ्य सहित धनधान्य एवं सम्मानयुक्त जीवनयापन हेतु हम मंगल कामना करते हैं l 


         पर्वतमाला में वसंत पंचमी नामक अगली ऋतु पर्व हमें स्फूर्तिपूर्ण जीवन यापन की प्रेरणा देने के लिए प्रस्तुत है। 'वसंत' ऋतु को “ऋतुराज" के नाम से पुकारा जाता हैमाघ शुक्ला पंचमी के दिन यह पर्व “ऋतुराज वसंत" के आगमन की सुचना देता हैअर्थात प्रकति माता (भूमिगर्भगत बीजों के अंकुरित रूप) को प्रकट कर मानवसमाज को अन्न-प्राप्ति का आश्वासन देकर हर्षित कर रही है। वनस्पति समूह, पशु पक्षिगण तथा समस्त जड़चेतन जगत् मे नवजीवन का संचार दृष्टिगत होने से दयालु देव परमात्मा का धन्यवाद करने के लिए जनसाधारण आबाल वृद्ध ग्रामीण तथा नगरवासी हर्षोत्सव मनाते हैं। 


          इस अवसर पर ऋतु परिवर्तन के कारण शीत के अत्यल्प होने कारण आलस्य प्रमाद को त्यागकर जीवन में नये उत्साह और उमंगों के साथ आगे बढ़ते हुए "कुछ कर दिखाने" का संकल्प लेना चाहिए। अपने (व्यक्तिगत जीवन) जाति तथा राष्ट्र के उत्थान हेत योजना बनाकर दृढ़तापूर्वक उसे पूर्ण करने का व्रत लें, तभी पर्व के मनाने से लाभ होगा। . इस दिन एक ऐतिहासिक घटना के कारण इस पर्व का महत्व और भी बढ़ गया l 


          धर्मवीर बालक हकीकत राय ने इस पर्व में चाँद लगा दिए। पूर्वजन्म के धार्मिक संस्कारों और माता-पिता के सत्संग के के प्रभाव से उसने यह सिद्ध कर दिया कि यह शरीर नष्ट होता है, आत्मा नहीं। निरपराध होते हुए भी एक विधर्मी (मुसलमान) शासक के पक्षपातपूर्ण निर्णय से आदेश दिया गया, कि “अपना हिन्दू धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ अथवा सिर कटवा दो।" उस धर्मवीर बालक ने अपना धर्म न छोड़कर बलिदान दे ही दिया। यह भी बसन्त ऋतु का प्रभाव अर्थात् नए उत्साह और उसका दृढ़तापूर्वक पालन करने का प्रमाण ही था। ऐसे वीर बालक के बलिदान से शिक्षा लेनी चाहिए। हम भी धर्म में (शुभ कर्मों के पालन करने) में दृढ़ रहें। भले ही उसका शरीर नष्ट हो गया, किन्तु वह यश से “अमर” हो गया।


         सच कहा है- कीर्तिर्यस्य स जीवति । कीर्तिवाला व्यकित सदा जीता रहता है। इसी मास में ही अल्पख्यात (न्यूनप्रसिद्ध) पर्व सीताष्टमी पर्व को भी ससम्मान और उत्साहपूर्वक हम श्री राम का नाम चर्चा का विषय बनेगा, वहां सीता का भी नाम स्मरण किया जायगा । वह इसलिए कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की धर्मपत्नी जो थी। उसने नारी जाति के सम्मुख आदर्श धर्मपत्नी का रूप प्रस्तुत किया। सुख में सभी सम्मिलित रहते हैं, किन्तु दुख में सभी दूर हो जाते हैं। दुख की घड़ियों में साथ निभाना ही परम मित्रता का चिह्न है। विवाह संस्कार में “सप्तपदी" विधि के सप्तसूत्रों में वर (पति) वधू (पत्नी) से प्रेरणा देते हुए वचन देता है, कि हमारा अंतिम लक्ष्य मित्रता है। अतः इसे प्राणपणसे निभाएंगे। नीतिकार ने भी लिखा है-"तन्मित्रं आपदि सुखे च सामं यत्" अर्थात् मित्र वही जो आपत्ति (दुःख) और सम्पत्ति (सुख) में समान क्रिया (आचरण-व्यवहार) वाला होता है। 


        सती सीता का सम्पूर्णका जीवन कष्टों से पूर्ण रहा। बल्कि विषय-वासनाओं से रहित नियम संयमपूर्ण तपोमयजीवन यापन करते हुए धर्मपरायण ही रहा। या यों कहना चाहिये कि उसने धर्मपत्नी नामको सिद्ध कर दिखाया। पुरुषों का नाम विवाह संस्कार के पश्चात् केवल 'पति' घोषित किया जाता है, किंतु देवी को 'धर्मपत्नी' नाम से सम्मानित किया जाता है और यह भी समझने की बात है, कि इसे धर्मपत्नी क्यों कहा जाता है। इसका अर्थ ही बता रहा है, जो जनसाधारण को ज्ञात नहीं है। ध्यान दीजिए-


           पति का अर्थ स्वामी (मालिक) और पत्नी का अर्थ स्वामिनी (मालकिन) होता हैयह सभी जानते तो हैं पर मानते नहीं। परन्तु धर्मपत्नी का अर्थ है, कि पत्नी होने के नाते मालकिन तो है, किंतु धर्म के कारण से मालकिन है। अर्थात् धर्म में अधिक आस्था रखने वाली होने कारण वह पति को धर्ममार्ग (दान, सेवा, परोपकार्य एवं ईश्वरभक्ति आदि शुभ कार्यों) में प्रवृत्त करने वाली है। ऐसा मनोविज्ञान से प्रभावित हो चुका है l 


          क्या ही अच्छा हो, कि आज की नारियाँ सती-साध्वी सीता के चरण-चिह्नों पर चलकर आदर्श पत्नी ही नहीं अपितु "लवकुश" जैसे वीर पुत्रों को जन्म देने वाली माता भी बनकर दिखाएं। जिससे समाज और राष्ट्र का कल्याण हो।



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