परिव्राट् संन्यासी का उपवास


परिव्राट् संन्यासी का उपवास


      उपरिलिखित पंक्तियों में हमने उपवास शब्द की व्याख्या करते हुए यह स्थापना की है-जब-जब व्यक्ति का जन्म होगा तब-तब उपवास आवश्यक है। संन्यास में दीक्षित होनेवाला व्यक्ति परिव्राट् तब कहलाएगा जब वह इन प्रक्रियाओं में से गुज़र लेगा। दीक्षित व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह समाधि-माता की कुक्षि में स्वयं को गर्भ मानकर चले और गर्भ की भाँति ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन अष्टाङ्गों का पालन करे। उदरस्थ प्राणि-गर्भ की ये प्रक्रियाएँ स्वतः सिद्ध हैं, उसे सिद्ध व्यक्ति कहना चाहिएउदर से बाहर आने पर जब तक उसका उपवास चलता है तब तक वह सहज योगी होता है। विस्तार-भय से हम इस पर विशेष न लिखते हुए केवल इंगित कर रहे हैं कि उसमें शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय-ईश्वर-प्रणिधान-पाँच नियम और अहिंसासत्यास्तेयब्रह्म चर्यापरिग्रहा यमाः-पाँच यम स्वयं-सिद्ध हैं। वह जब लेटे हुए हो,चाहे उल्टा हो अथवा सीधा हो तो उसके हाथ-पैर चलते हैं, तब आसन नाम का अङ्ग सिद्ध हो रहा होता है। इसी प्रकार प्राणायाम-प्रक्रिया भी स्वतः होती रहती है। यदि शिशु का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो लगता है कि उसका परमात्मा के साथ सम्बन्ध है। वह लेटा-लेटा कभी हँसता है तो कभी रोमांचित हो उठता है। इसका कारण आनन्द है, न कि सांसारिक सुख। इसको हमने उपवास-प्रक्रिया माना है। परिव्राट् (संन्यासी) के लिए वह आदर्श है। संन्यास की दीक्षा लेनेवाला व्यक्ति शिशु के उपवास से अपने उपवासप्रक्रिया की तुलना कर दीक्षित हो। जब उसकी भाँति निःस्पृह, निष्काम, सहज अवस्था प्राप्त कर ले और प्रत्याहार सिद्ध हो रहा हो और आन्तरिक आहार ही उसे रोमांचित कर हर्षित और प्रफुल्लित कर रहा हो, तब समझना चाहिए कि उसकी समाधि सिद्ध है। अन्तर इतना ही है कि शिशु की समाधि ज्ञान-शून्य है और परिव्राट्-संन्यासी की समाधि ज्ञानयुक्त है। महर्षि दयानन्द ने विधि-प्रकरण में आदेश किया है कि "जो पुरुष संन्यास लेना चाहे वह जिस दिन प्रसन्नता हो, नियम और व्रत अर्थात् तीन दिन तक दुग्धपान करके उपवास और भूमि पर शयन और प्राणायाम, ध्यान तथा एकान्त देश में ओंकार का जप किया करे॥" इस वाक्य में आए हुए नियम और व्रत दीक्षित होनेवाले व्यक्ति के परम कर्तव्य हैं। जिस प्रकार कुमार ब्रह्मचारी के उपनयन-संस्कार में उसका पिता नियम और व्रतों की ओर इंगित करता है, तद्वत् संन्यास में दीक्षित होनेवाले व्यक्ति को नियम और व्रत-पालन का ध्यान दिलाया जा रहा है। ये सब एक प्रकार से उपवास शब्द में सम्मिलित हो गए हैं, जिसकी हमने ऊपर व्याख्या कर दी है।


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