पंच महायज्ञ महिमा


पंच महायज्ञ महिमा


      पञ्च महायज्ञ आर्य जीवन की आधार शिला हैं। यह एक प्रकार की दिनचर्या है जो सबके करने की है। इसलिए शास्त्रों में लिखा है कि


पञ्चयज्ञ विधानं तु शूद्रस्यापि विधीयते


      अर्थात् ये नित्य करने के पञ्चमहायज्ञ शूद्र अर्थात् अनपढ़ अनाडी सामान्य व्यक्ति के करने योग्य भी हैंमानव धर्म शास्त्र प्रणेता महर्षि मनु लिखते हैं-


ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा


नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्तिं न हापयेत्॥


       अर्थात् यथाशक्ति ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ और पितृयज्ञ को मनुष्य न छोड़े अर्थात् प्रतिदिन करे। (प0 म0 वि0।। स0 प्र0 समु० ४।) -मनु 0 ४।२१।


       इन नित्यकर्मों के फल ये हैं कि ज्ञानप्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से (जीवन) व्यवहार और (मोक्षादि) परमार्थ कार्यों की सिद्धि होती है, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये (चार पुरुषार्थ) सिद्ध होते हैं। इनको प्राप्त होकर मनुष्यों को सुखी होना उचित है (ऋषि दयानन्द कृत पं0 म0 वि0) महाभारत में लिखा है कि-


अहन्यहनि ये त्वेतान्यकृत्वा भुञ्जते स्वयं।


केवलं मलमश्नाति ते नरा न च संशयः॥


      अर्थात् प्रतिदिन जो व्यक्ति इन 'पंचमहायज्ञों' को किए बिना स्वयं अकेले भोग करते खाते पीते हैं, वे मनुष्य केवल पाप खाते हैं अर्थात् निन्दा के पात्र होते हैं। वस्तुतः इसमें कोई संशय नहीं।(अश्वमे0 १०४।१६)


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