पं० काशीराम

फिरोजपुर के थानेदार हत्याकाण्ड के शहीद


पं० काशीराम


      आजादी की क्रान्ति की आग में पं० काशीराम आहुति बनकर स्वाहा तो हो गये किन्तु वे गोरी सरकार के न्याय का जनाजा निकाल गयेहुआ यह कि फिरोजपुर (पंजाब) के पास क्रान्तिकारियों के साथ मुठभेड में एक थानेदार मारा गया। सरकार ने सात लोगों को अभियुक्त बनाया और सजा के रूप में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उनमें एक पं. काशीराम थे। जब असली अपराधी श्री गन्धासिंह पकड़े गये तो उन्हें फांसी की सजा सुनाते हुए जज को लिखना पड़ा-


      “जो सात मनुष्य पहले फांसी पर लटकाये गये थे, वे वास्तविक अपराधी नहीं थे। असली अपराधी तो यह (गन्धासिंह) है जिसे हम आज फांसी दे रहे हैं।" उन सात में एक पं. काशीराम थे।


      तो यह था गोरी सरकार का न्याय और निर्दोष भारतीय जनता पर जुल्म !!


    पं. काशीराम का जन्म अम्बाला जिले के 'मड़ौली कलां' गांव में भादों सुदी द्वादशी, सम्वत् १९३८ (सन् १८८१) में हुआ थाआपके पिता का नाम पं. गंगाराम था। आप पर आजादी का दीवानापन छाया था। दस वर्ष की अवस्था में आपकी शादी हो गयी थी किन्तु इन्ट्रेन्स (१२वीं) पास करते ही आप घर छोड़कर निकल गये और देशसेवा के कार्यों में लगे रहे। उसके बाद १९१४ में कुछ समय के लिए आप घर आये थे तब तक आपके वियोग में धर्मपत्नी का देहान्त हो चुका था।


    आपने कुछ समय, दिल्ली में नौकरी की और फिर हांगकांग होते हुए अमेरिका चले गये। वहां एक बारूद के कारखाने में नौकरी की किन्तु उसमें गुलामी की अनुभूति हुई तो उसे छोड़कर भारत आ गयेथोड़ी देर के लिए गांव पहुंचे तो आपको देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। आप लाहौर बैंक से पैसे निकालने का बहाना बनाकर घर और भीड़ से पीछा छुड़ाकर आ गये और क्रान्ति के कामों में लग गयेबस यही आपकी अपने घर की अन्तिम यात्रा थी।


      लाहौर पंहुचने के बाद आपको साथियों के साथ किसी योजना को क्रियान्वित करने के लिए फिरोजपुर भेजा गया। फिरोजपुर के पास एक गांव में अचानक आपके दल की पुलिस से मुठभेड़ हो गयी। दोनों ओर से चली गोली में थानेदार मारा गया। क्रान्तिदल के तेरह लोगों में से कुछ भाग गये, सात गिरफ्तार कर लिये गये। उनमें एक पं. काशीराम भी थे। सातों को फांसी की सजा सुना दी गयी |


      फांसी की सजा की प्रतीक्षा में लाहौर सेंट्रल जेल में बंद काशीराम से पिता पं. गंगाराम मिलने आये। पुत्र को कालकोठरी में बंद देख बहुत सारे उलाहने दिये, अपने और उसकी माता के बुढ़ापे की दुहाई दीमाता इनके बिछोह में पागल हुई जा रही थी। वे खूब रोये। पं० काशीराम ने निर्विकार भाव से पिता को उत्तर दिया-"पूज्यवर, इस संसार में न कोई किसी का पुत्र है, न पिता। यह तो एक भावना मात्र है, अतः आप इन सम्बन्धों को लेकर दुखी न हों। रही सेवा-संभाल, खाने-पीने की बात, जिस परमात्मा ने हमें उत्पन्न किया है, वह खाने को भी देगाआप सभी भारतीयों को अपना पुत्र समझिए।" भाई को आता देखकर आपने कहा-"खबरदार आंखों में आंसू मत लाना। मैंने कोई पाप नहीं किया है, मैंने जो कुछ किया है देशहित के लिए किया हैइस प्रकार मरने पर मुझे देशभक्तों के चरणों में स्थान मिलेगा। इसे मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ।


      घरवाले नहीं माने। आपकी फांसी की सजा के विरुद्ध ऊपर गवर्नर के पास अपील की। अंग्रेजों के न्याय का एक और उदाहरण देखिए-अपील पर निर्णय आने से पहले ही आपको १७ मार्च १९१५ को फांसी दे दी गयी। लाहौर जेल की सूची में एक शहीद का नाम और जुड़ गया |


      श्री रहमत अली शाह


      इन सात निर्दोष फांसी पाने वालों में एक श्री रहमत अली शाह भी थे जिनके बारे में जज ने कहा था कि निर्दोषों को फांसी गलती से दे दी गयी। इससे अधिक जानकारी इनके बारे में उपलब्ध नहीं है।


      मैं देश के लिए फांसी पर चढ़ने ही आया हूँ


 


      श्री गन्धासिंह


      ८ मार्च १९१६ का दिन था।


      सुबह पांच बजे वार्डर नहाने के लिए पानी लेकर आया और उसे देते हुए गन्धासिंह से पूछा-"आपको पता है न आज आपको फांसी होनी है ?


      "फांसी ? फांसी मेरे लिए कोई विशेष बात नहीं है। जिस दिन मैं अमेरिका से भारत लौटा था तो सोचकर आया था कि मुझे फांसी तो चढ़ना ही है।" गन्धासिंह ने यह वीरतापूर्ण उत्तर बड़े साधारण ढंग से दिया।


      फांसी हो चुकने पर वार्डर ने अपने दूसरे साथियों से कहा-"मैंने अपनी तीस साल की नौकरी में १२५ आदमियों को अपने हाथों फांसी के तख्ने तक पहुंचाया है। जो उत्साह और दृढ़ता मैंने गन्धासिंह में देखा वह किसी और में नहीं था।" और यों बात करते-करते कर्मचारी रो पड़े थे |


      फांसी की सजा होने के बाद गन्धासिंह को देखकर एक अंग्रेज सिपाही ने कहा था- “गन्धासिंह बहुत खुश दिखाई देता है। ऐसा लगता है जैसे उस पर फांसी का भय नहीं, नशा छाया हो।"


      ऐसे बहादुर दिल के थे गन्धासिंह जो देश की आजादी के लिए खुशी-खुशी फांसी के तख्ते पर झूल गये।


    आपका जन्म जिला लाहौर के 'कच्चरमन' गांव में हुआ था। आपका नाम भगतसिंह था किन्तु सिख धर्म की दीक्षा के बाद रामसिंह रखा गया, परन्तु आप प्रसिद्ध गन्धासिंह के नाम से ही रहे। छुटपन में आप अमेरिका चले गये थे। अमेरिका में आप गदर पार्टी के प्रमुख व्यक्तियों में से थे। भारत में क्रान्ति का वातावरण बनने पर आपको भारत लौटने का निर्देश हुआ। १९१४-१५ की क्रान्ति की योजना में आपके दल का महत्त्वपूर्ण हाथ था। आप सारे-सारे दिन घूमकर गांवों में क्रान्ति का प्रचार करते थे। सारे दिन पैदल चलकर भी थकते न थे, जैसे क्रान्ति की उमंग छाई हो।


      एक दिन आप अपने दल के तेरह साथियों के साथ जिला फ़िरोजपुर (पंजाब) के 'घल खुर्द' गांव पास जा रहे थे कि पुलिस ने आ घेरासंयोग से इस थानेदार ने आपको बचपन में पाला-पोसा था। थानेदार ने क्रान्तिदल के एक साथी को गालियां देते हुए मुंह पर तमाचा मारा। उस साथी ने इस अपमान को इसलिए चुपचाप सह लिया कि थानेदार गन्धासिंह का जानकार था। आजादी के लिए घर छोड़कर खाक छानने वाले विद्रोहा को यह अपमान असह्य प्रतीत हुआ। गन्धासिंह की ओर देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गये। गन्धासिंह ने भी अनुभव किया कि एक देशभक्त का घोर अपमान हुआ है। गन्धासिंह ने अपना रिवाल्वर ताना और थानेदार पर गोलियां बरसा दीं। थानेदार तथा एक अन्य कर्मचारी मौत की नींद सो गये। पुलिस दल में भगदड़ मच गयी। इनका दल भी भाग-दौड़ में तितर-बितर हो गया। 


      एक दिन फिर पुलिस का सामना हो गया। दोनों ओर से गोली चली। क्रान्ति दल का गोला-बारूद समाप्त हो गया। कुछ लोग मारे गये, कुछ भाग निकले। बच निकलने वालों में गन्धासिंह भी एक थेपकड़े गये सातों लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। गन्धासिंह का पुलिस पर ऐसा रौब हुआ कि पता लगने पर भी पुलिस किनारा कर लेती थी। वे घूम-घूम कर क्रान्ति के प्रचार में लगे रहे।


    खन्ना के पास एक गांव में दीवान हो रहा था। वहां आपकी मुलाकात ज्ञानी नत्थासिंह नामक एक मास्टर से हुई। यह लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में नौकर था और सरकार का दलाल था। विश्वास में लेकर वह भाई गन्धासिंह को अपने साथ ले गया। रास्ते में एक स्थान पर जहां बहुत-से लोग खड़े थे, उसने आपको पीछे-से पकड़ लिया और डाकू-डाकू कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने भी आपको पकड़ने में सहायता की। लोगों की सहायता से आपके दोनों हाथ कसकर पीछे बांध दिये और गांव में लाकर एक कोठरी में औंधे मुंह पटक कर बंद कर दिया गया। रात भर इसी प्रकार पड़ा वह तड़पता रहा। दूसरे दिन सवेरे पुलिस कप्तान ने आकर दरवाजा खोला। उस समय गन्धासिंह के दोनों हाथ सूजकर जांघ के समान मोटे हो गये थे और वह पीड़ा से व्याकुल था |


      गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा चलाया गया और फांसी की सजा हुई। गन्धासिंह बाद के उन लोगों में से था जिन्हें थानेदार हत्याकाण्ड में दूसरा मुकदमा चलाकर फांसी दी गयी। उस मुकदमे के फैसले में जज ने लिखा था कि “पहले जिन सात लोगों को फांसी दी गयी, वे असली अपराधी नहीं थे। असली अपराधी तो ये लोग हैं।" यह था गोरी सरकार का न्याय !!


      एक विश्वासघाती सरदार भाई ने अंग्रेजों की वाह-वाही लूटने के लिए अपने भाई को फांसी चढवा दिया ! वह गददार आज कहीं नाली का गदगी में पड़ा बिलबिला रहा होगा, परन्तु गन्धासिंह का नाम भारत के आजादी के इतिहास में अमर है।


 


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