पढ़ाने वालों के लक्षण
कैसे पुरुष पढ़ाने और शिक्षा करानेहारे होने चाहियें
- पढ़ाने वालों के लक्षण
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्या नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ।।
जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखुदःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला हो; जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा अधर्म की ओर न खींच सके वह 'पण्डित' कहाता है।
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते l
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम् ।l
सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों को करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न सेवनेहारा; न कदापि ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी और परमात्मा सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है वही मनुष्य 'पण्डित' के लक्षणयुक्त होता है l
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भजते न कामात l
नासम्पृष्टो झुपयुड्.क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ।l
जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र ओर धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान सुनकर ठीक-ठीक समझ निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्यत्ता परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थों को जान के उनसे उपकार तन, मन, धन से प्रवृत्त होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दाल से पृथक् वर्तमान; किसी के पूछने वा दोनों के संवाद में बिना प्रसङ्ग के भाषणादि व्यवहार न करने वाला मनुष्य है, यही 'पण्डित' का प्रथम बुद्धिमता का लक्षण है।
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयःll
जो मनुष्य प्राप्त होने के अयोग्य पदार्थों की कभी इच्छा नहीं करते; अदृष्ट वा किसी पदार्थ के नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाषा नहीं करते और बड़े-बड़े दुःखों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में भी मूढ़ होकर नहीं घबराते हैं वे मनुष्य पण्डितों की बुद्धि से युक्त कहाते हैं।।
प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते।।
जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलने वाली, अत्यन्त अद्भुत विद्याओं की कथाओं को करने, बिना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने जनाने, सुना विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो इन सब विद्याओं के ग्रन्थ को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ाने वाला मनुष्य है वही पण्डित कहाता हैश्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ll
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः।।
जिसकी सुनी हुई और पठित विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकूल और बुद्धि और क्रिया सुनी पढ़ी हुई विद्याओं के अनुसार जो धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्ट डाकुओं की रीति को विदीर्ण करनेहारा मनुष्य है वही पण्डित नाम धराने के योग्य होता है।।
जहाँ ऐसे-ऐसे सत्य पुरुष पढ़ाने और बुद्धिमान् पढ़ने वाले होते हैं वहाँ विद्या और धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है और जहाँ निम्नलिखित मूढ़ पढ़ने पढ़ानेहारे होते हैं वहाँ अविद्या और अधर्म की उन्नति होकर दुःख ही बढ़ता जाता है।