पाणिग्रहण के प्रतिज्ञा मन्त्र

पाणिग्रहण के प्रतिज्ञा मन्त्र


ओं गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्याजरदिष्टिर्यथासः।


भगो अर्यमा सविता पुरन्धि मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः॥


                                                                       


वर-


     हे सुभगे ! सौभाग्य वृद्धि हित पकड़ रहा हूँ मैं तब हाथ।


     वृद्धावस्था लौं सुख पूर्वक रहना तुम मुझ पति के साथ।।


वधू-


     गहती हूँ सौभाग्य वृद्धि हित हाथ तुम्हारा मैं प्रिय कन्त !


     रहो मुदित मन मुझ पत्नी के साथ जरावस्था पर्यन्त।।


    ईश, देवगण ने दोनों के आज मिलाये मानस कूल।


    हम दोनों वर वधू परस्पर करें आचरण प्रिय अनुकूल।।


ओं भगस्ते हस्तमग्रभीत् सविता हस्तमग्रभीत्।


पत्नीत्वमसि धर्मणाऽहं गृहपतिस्तव॥२॥


वर-


     विभव युक्त मैं सत्पथ प्रेरक पकड़ रहा हूँ तेरा हस्त।


    हुए धर्म से पति, पत्नी हम, करें गृहाश्रम कर्म प्रशस्त।


ओं ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाद् बृहस्पतिः।


मया पत्या प्रजावती शं जीव शरदः शतम्॥३॥


     विश्व नियन्ता परमेश्वर ने तुमको मुझे प्रदान किया।


     प्रेममयी पत्नी सुपोषिका, सदाचारिणी परम प्रिया।।


      सजनि! अवश्य करुंगा सञ्चित, सकल सौख्यसाधन से उमंग।


     जियो जगत् में सुख पूर्वक तुम, शत वर्षों तक मेरे संग।।


वधू-


      प्रभु की परम कृपा से मुझको आप मिले पति प्राणाधार।


      मेरे लिये आप ही हैं प्रिय ! स्वामी भर्त्ता, स्नेहागार।।


      नहीं करेंगे आप कभी पर-नारी से पत्नीवत् प्रीति ।


      मैं भी साजन ! नहीं करूंगी, पर से पतिव्रत प्रीति प्रतीति।।


     पति-पत्नी हम हुए आज से, दोनों रंगे प्रेम के रंग।


     एक दूसरे के अभाव की पूर्ति करेंगे रह कर संग।।


त्वष्टा वासो व्यदधाच्छुभेकं बृहस्पतेः प्रशिषा कवीनां।


तेनेमां नारी सविता भगश्च सूर्यामिव परि धत्तां प्रजया॥४॥


वर


     ईश आप्त जन की शिक्षा से होता दम्पाति को सुख प्राप्त।


     यत्र तत्र सर्वत्र हो रही विद्युत महिमा जैसे व्याप्त।।


     त्यों पट-भूषण से सज्जित होकर मुझसे सुख प्राप्त महान।


    तुम्हें करूँगा विभव सुखों से, मैं परिपूरित सूर्य समान।।


वधू


     म भी पट भूषण आदिक दे, सन्तति सुखदायक प्रिय पुष्ट।


     है प्रियतम ! मन, वचन कर्म से तम्हें करुंगी अति सन्तुष्ट।।


ओ इद्राग्नी द्यावा पथिवी मातरिश्वा मित्रा वरुणा भगो अश्विनोभा।


बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारी प्रजया वर्धयन्तु॥५॥


     ज्यों इन्द्राग्नि, दिवाकर, पृथ्वी, मित्रावरुण वैद्य सुजान।


     सभ्य न्यायप्रिय, नृपति विश्वपति, सत्वादी वक्ता विद्वान।।


      पालन वृद्धि प्रजा की करते, देते हैं नित जीवन दान।


     वैसे सब विधि हमें बढाओं हे सम्बन्धी जन श्रीमान।।


      वैसे ही मैं भी पत्नी को प्रजा सौख्य से कर भरपूर।


     वृद्धि करुंगा 'स्वर्गाश्रम' की सकल अभाव करुंगा दूर।।


वधू-


     मैं भी ईश देवगण सदृश वृद्धि करुंगी भली प्रकार।


     अपने पति की बन सहगामिनि, हृदय भरुंगी मोद अपार॥


अहं विष्यामि मयि रुपमस्या वेदवित्पश्यन्मनसा कुलायम्।


न स्तेयममि मनसोदमुच्ये स्वयं अनातो वरुणस्य पाशान्॥


                                                                                 


वर-


     कुल की वृद्धि कर तेरी, छवि पर हुआ मुग्ध पर्याप्त।


    तैसे ही तू तन्मय मुझ में, प्रेम प्रीति से होकर व्याप्त।।


    व्रत अस्तेय निभाऊँगा मैं, तुझ पत्नी का पा संयोग ।


    न छिपा तुमसे कभी करूंगा, किसी वस्तु का मैं उपभोग।।


    चाहे कितना भी हो मेरा श्रम से शिथिल विकल तन-मन।


    तदपि करुंगा नष्ट सकल मैं खल दल-दलन विघ्न बन्धन।।


वधू-


  तुम मेरे हो गये प्राण-धनं मैं हो गई तुम्हारी आज ।


  प्रियतम ! तुम से कभी छिपाकर नहीं करुंगी कोई काज।


  दुःख सुख में मैं साथ तुम्हारा, दूंगी जीवन धन प्राणेश !


  'स्वर्ग' बनाऊँगी गृहस्थ को, नष्ट करूंगी कण्टक क्लेशा।।


 


 


 


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