पाँचवां आक्षेप


             क्रमश: ज्ञानवृद्धि का सिद्धान्त तो सर्वथा निराधार है और क्लिष्ट कल्पना मात्र है। इस सम्बन्ध में अनेक समयों में अनेक व्यक्तियों के द्वारा परीक्षण किये गए और सब का एक ही फल निकला। और वह यह था कि क्रमश: ज्ञानवृद्धि का सिद्धान्त अप्रामाणिक है। परीक्षण करनेवाले व्यक्तियों के नाम ये हैं-


             (१) असुरवानापाल-लेयार्ड और रौलिन्सन दो अन्वेषकों ने नैनवा और बैवलन (असीरिया) के पुराने खण्डहरों को खुदवाया और ईटों पर लिखे हुए पुस्तकालय निकाले। उन पुस्तकों से वानापाल के परीक्षणों का हाल मालूम हुआ। पुराणों में इसी वानापाल को बाणासुर लिखा है। जिसने इस देश पर आक्रमण किया और श्रीकृष्ण द्वारा पराजित हुआ था।


            (२) यूनान का राजा सेमिटिकल.


            (३) द्वितीय फेडरीक


            (४) चतुर्थ जेम्स


            (५) महान् अकबर'


            इन राजाओं के आधिपत्य में अनेक विद्वानों द्वारा १०-१०, १२१२ छोटे-छोटे नवजात बालकों को शीशों के मकानों में रखा गया और उनकी परवरिश के लिए धाइयाँ रखी गयीं। उनको समझा दिया गया कि वे बच्चों को खिला-पिला कर प्रत्येक प्रकार से उनकी रक्षा करें परन्तु उनको किसी प्रकार की कोई शिक्षा न दें। न उनके सामने कुछ बोलें। उन धाइयों ने ऐसा ही किया। इस प्रकार परवरिश पाकर जब बच्चे बड़े हुए तब जाँच करने से मालूम हुआ कि वे सभी बहरे और गूंगे थे। यदि बिना शिक्षा दिये स्वयमेव किसी में ज्ञान उत्पन्न हो सकता तो इन बच्चों को भी बोलना आदि स्वयमेव आ जाता। इनका बहरा और गूंगा रह जाना साफ तौर से प्रकट करता है कि स्वयमेव ज्ञान न उत्पन्न होता है, न उस की वृद्धि होती है।


-महात्मा नारायण स्वामी 



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