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संवत् १९९४ की महाशिवरात्री (मूलशंकर) दयानन्दकी आत्मबोध करागई ।
और (मूलशंकर) महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संसार की सोई आत्मा को जगा गई।  
       


             जन साधारण का विचार है कि ईश्वर स्वयं अवतार धारण कर पृथ्वी पर जन्म लेता है । यह महा अज्ञान है, क्योंकि अजन्मा, अव्यय, निराकार सृष्टिकर्ता ईश्वर साधारण मनुष्य के रूप में साकार कैसे हो सकता है । यह अलग बात है कि मोक्ष से लौटी मुक्त आत्माएं अधर्म का नाश करने के लिए किसी माता-पिता के गोद में मनुष्य के रूप में जन्म लेती हैं।


           संसार में जीवों का जन्म दो प्रकार से होता है, एक कर्म से बद्ध जीवों का दूसरा माया मोह के बन्धनो से युक्त जीवों को होता है । उदाहरण महाभारत में अर्जुन कर्म से बद्ध जीव है और श्री कृष्ण कर्म से मुक्त जीव है ईश्वर की प्रेरणा से कर्म वद्ध जीवों का जन्म कर्म फल भोगने के लिए होता है और कर्म मुक्त जीवों का जन्म स्वेच्छा से दूसरों के कल्याण के लिये होता है । ऐसे ही महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म संसार के कल्याण के लिये हुआ था ।


जन्म और बोध की महान घटना


            ऋषि दयानन्द का जन्म (संवत १८८१) विक्रमी में भारत के सौराष्ट्र (काठियावाड़) प्रान्त में मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में हुआ था । उनके पिता का नाम कर्षन जी लाल जी त्रिवेदी था । वे औदीच्य ब्राहम थे । उनका बचपन का नाम मूलशंकर था, संन्यास लेने के बाद दयानन्द सरस्वती हुआ l


            १८ वर्ष की आयु में ही मूलशंकर ने यजुर्वेद कण्ठस्थ कर लिया था । इसी अवस्था में एक दिन महा शिवरात्रि के पर्व पर पिता जी ने व्रत रखने और रातभर जागने का आदेश दिया और मूलशंकर ने शिव मन्दिर में मूर्ति के सामने बैठकर उनके दर्शन की प्रबल इच्छा से सारी रात काट दी । शिव जी के दर्शन तो क्या होने थे, उसने देखा कि जब सब भक्त सो गये, तब मन्दिर में सन्नाटा देखकर चूहे बिलों से निकल आये और मूर्ति पर चढ़े (नैवेद्य) प्रसाद को खाने लगे और उछल कूद करने लगे। यह देखकर मूलशंकर के हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि ये कैसा शिव है जो चूहों से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकते है । इस महान शंका का समाधान कोई न कर सका । भला यह परमेश्वर कैसे हो सकते है और हमारी रक्षा कैसे कर सकते है बस यही विचार संसार की दशा बदलने में सहायक सिद्ध हुई और उन्होंने हृदय में निश्चय कर लिया कि मैं सच्चे शिव को प्राप्त करूंगा और घर छोड़ कर शिव को ढूंढ़ने निकल पड़े । फिर आजीवन घर वापस नहीं आये l


उन्नीसवीं शताब्दी में


             ऋषि दयानन्द जी गुरू बिरजानन्द से शिक्षा पाकर भारत के रणांगन में उतरे तब उन्हें चारो तरफ अन्धकार व ललकार ही सुनाई व दिखाई दिया । उन्होंने उस ललकार को स्वीकार किया । साधारण लोग इस ललकार को सुनकर इस चैलेंज और आह्वान को देखकर जीवन संग्राम से भाग खड़े होते हैं । परन्तु ऋषि दयानन्द समय का दास बनकर नहीं आये थे, किन्तु समय को अपना दास बनाने आये थे । महापुरुष जमाने की गर्दन पकड़ कर उसे अपने अनुसार चलाते है ।


ललकार ही ललकार


            भारत की परतन्त्रता, धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीतियां, जाति प्रथा, नारियों का शोषण, सामन्तवादी प्रथा, व अनेक अन्ध प्रथाओं की चुनौतियां उनके सामने थी, उन्होंने भारतीयों के अन्ध विश्वास व पीड़ा को समझा, इसके रोग को अनुभव किया, इसके लिये जीवित थे । हिन्दुओं का रूढ़िवाद का विशेष चैलेंज था जहां देखो वहां कुप्रथाओं की दासता, रूढ़ि की गुलामी, जो चला आ रहा है, उससे इधर-उधर नहीं जा सकते । महर्षि दयानन्द जी ने रूढ़ि की थोथी दीवारों को एक झटके से गिरा दिया । अगर पौराणिक धर्म उनको एक चैलेंज के रूप में दिखाई दिया तो ईसाइयत और इस्लाम भी उन्हे चैलेंज के रूप में दिखाई दिया । तो ईसाई और मुस्लिम भी उन्हें चैलेंज के रूप में दिखाई दिया। बाहर वालों से और अन्दर वालों से जूझ पड़े । दुनिया भर की गन्द जला डालने की हिम्मत उनमें थी।


ऐसे महा पुरुष दुनिया को बदलने के लिये पैदा होते है।
            ऐसे महापुरूष संसार को एक नया दृष्टिकोण दे जाते हैं । किन्तु पुराना जड़वाद समाज उन्हें बरदाश्त नहीं कर सकता है लेकिन ये दुनिया भी ऐसी है कि उन्हें देर तक बरदाश्त नहीं कर सकती। किन्तु वह महापुरूष उसके लिये तैयार रहते हैं सुकरात अपने जमाने को बदलने आये थे, उन्हें जहर का प्याला पीना पड़ा ईसामसीह नई दुनिया का सपना लेकर आये थे, उन्हे सूली पर लटकना पड़ा। महर्षि दयानन्द अपने देश और जाति को नये ढांचे में बदलने आये थे, उन्हें दूध में घुले जहर को पीकर प्राण गँवाने पड़े। महात्मा गांधी नई सोच दे रहे थे, उन्हें गोली का शिकार होना पड़ा । ये दुनिया अपने को बदल देने वाले को बरदाश्त नहीं कर सकती है । किन्तु वे ऐसी शक्ति अपने पीछे छोड़ जाते हैं जो नवीन संसार की रचना कर देती है l 


महर्षि दयानन्द सरस्वती जी द्वारा संसार को बदलने की देन


            महर्षि दयानन्द जी ने सर्वप्रथम वेदों के रूढ़ि अर्थो पर प्रहार किया, और शब्दों का शुद्ध अर्थ करके ईश्वर परक अर्थ किये, क्योंकि उस वक्त विद्वान वेदों के इतिहास परक अर्थ करते थे, महर्षि ने वेदों के अर्थ विज्ञान व सृष्टि क्रमानुसार किये । उन्होंने चले आ रहे थे जो वेदों के अर्थ के अनर्थ में कि वेदो में पशु बलि है, नारी और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है, सबका विरोध किया और वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया । 


           महर्षि दयानन्द और अन्य समाज सुधारकों में भेद यह है कि दूसरों ने हिन्दू धर्म खत्म करने का प्रयास किया, किन्तु महर्षि दयानन्द जी ने हिन्दू रहते हुए उन्हें, नवीनता के रंग में रंग दिया । उन्होंने हिन्दू धर्म की काया पलटने का कार्य किया यही कारण है, उन्नीसवीं शताब्दी समकालीन सुधारकों में जितनी सफलता उनको मिली उतनी अन्य किसी को नहीं मिली । ऋषि दयानन्द ने समाज की जो रूप रेखा बनाई थी, उसी को लेकर बीसवीं सदी में सामाजिक तथा राजनैतिक नेताओं ने कार्य किया महात्मा गांधी के बीसवीं सदी के आन्दोलन को समझने के लिये ऋषि दयानन्द का उन्नीसवीं शताब्दी के आन्दोलन को समझना आवश्यक हैं l


ऋषि दयानन्द जी ने निम्न महत्वपूर्ण कार्य किये


          रूढ़िवाद पर प्रहारः ऋषि दयानन्द जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सदियों से चली आ रही रूढ़ि परम्परा पर कठोर प्रहार किया । उन्होंने कहा जो चला आ रहा है, उसकी रक्षा करनी है और रूढ़ियों को तोड़ना हमारा धर्म है, समाज को आगे बढ़ाना है । पीछे नहीं लौटाना है उन्होंने तमाम रूदि परम्पराओं को तोड़ने का नारा लगाया । सारे भारत में हलचल मच गई और सुधारवाद का नारा चल पड़ा । एक ही जगह भारत सदियों की नींद छोड़ आगे कदम बढ़ाने लगा ।


           धार्मिक क्षेत्र में रूढ़िवाद पर प्रहारः भारत का धर्म वेदों से बंधा हुआ था, क्योंकि वेदों के रूढ़ि अर्थ उस समय के विद्वानों ने किये थे, उस समय के विद्वान सायणाचार्य, महीधर, मैक्समूलर, जेकोबी, शंकराचार्य आदि ने कहा कि नारियों और शूद्रों को वेद नहीं पढने चाहिए, वर्ण व्यवस्था जन्म से हो कर्म से नहीं, दलित वर्ग को सदा नीचे रखकर शोषण करना चाहिए, काल्पनिक देवताओं की पूजा करनी चाहिए, जड़ पदार्थ मूर्ति पूजा करनी चाहिए, क्योंकि ये सब वेदों में लिखा है । अन्धविश्वासों को मिटाने के लिये सबसे पहला प्रहार वेदों के रूढि इतिहास परक अर्थो पर किया निरूक्त शास्त्र के अनुसार, ईश्वर परक अर्थ किये समाज की विचारधारा ही बदल डाली । उन्होने कहा श्री राम, कृष्ण, शिव, हनुमान आदि उच्च आदर्श महापुरुष थे, उनकी चित्र या मूर्ति की जगह उनके चरित्रों को मानना चाहिए। उन्होंने प्राचीनता और नवीनता का आधार सत्य वेदों का मार्ग खड़ा कर दिया l


           सामाजिक क्षेत्र में रूढिवाद पर प्रहार:- महर्षि का दृष्टिकोण सर्वदा मौलिक था और वह भूतकाल और भविष्यकाल को मिलाकर चलना चाहते थे स्त्री शिक्षा चलाना, बाल विवाह रोकना, विधवा विवाह निषेध, दहेज प्रथा आदि रूढ़ियों को रोका, उन्होंने समाज में व्याप्त तमाम रूढियों को तिलांजलि दी । उन्नीसवीं सदी में जितनी सफलता उनको मिली और किसी को नहीं मिली महर्षि दयानन्द जी का उन्नीसवीं सदी का सुधारवादी आन्दोलन और महात्मा गांधी का बीसवीं शताब्दी का आन्दोलन सफल रहा l


           राजनैतिक क्षेत्र में प्रहार:- उनका आधार राजनैतिक क्षेत्र में चली आ रही रूढ़िवाद का उन्मूलन करना था उनका मानना था कि जब तक राजनैतिक क्षेत्र में विद्वानों और धार्मिक लोगों का नेतृत्व होगा तभी भारत में खुशहाली आ सकेगी। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि आर्यो का आलस्य आपसी विरोध आदि के कारण फैला है । कोई कितना करे स्वराज्य सर्वोत्तम होता है l


          समाजवादी विचार धारा:- आज हम जो समाजवाद का नारा लगाते हैं वह पश्चिम की नकल है । महर्षि दयानन्द जी ने पूर्व और पश्चिम का समन्वय किया और अपनी मूल संस्कृति को न छोड़ते हुए नवीन विचारधारा अपनाई थी । उन्होंने समाजवाद व उसकी वर्ण व्यवस्था, तथा गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को अपनाया था।


                 शिवरात्री हमें भी जगा दो इक बार । आती तुम यद्यपि बार-बार- l
                पर रहे हम अभागे, जो हम नहीं बदल पाये अपने जीवन को-
                कर चुका तुम्हारा स्वागत जीवन में, कितनी बार, हमें भी जगा दो इस बार-।


 


प. उम्मेदसिंह विशारद
वैदिक प्रचारक
मो. 9411512019, 9557641800



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