नित्य कर्म विधि

नित्य कर्म विधि


 दिनचर्या प्रतिदिन प्रभु का चिन्तन करने के साथ कार्यारम्भ ब्रह्मयज्ञ और देवयज्ञ करने की प्रक्रिया का विधान है। इस क्रिया आरम्भ मनु महाराज के आदेशानुसार-


                               अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति।


                                विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति॥ 


                                                                                     मनु. अ. ५, श्लोक १०६


महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है कि "जल से ऊपर के अंग पवित्र होते हैं। आत्मा और मन नहीं।" मन तो सत्य के प्रयोग से शुद्ध होता है। जीवात्मा तपश्चरण से निर्मल बने चित्त में स्वरूप स्थिति को प्राप्त होता है और विद्या योगाभ्यास व धर्माचरण से आत्मा पवित्र होती है, तथा बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है जल से नहींधर्म का स्वरूप उन नियमों का है जिनके व्यवहार से संसार चल रहा है। आचरण उस व्यवहार का नाम है जिसको करने से मानव में परस्पर कटुतापन न आये। जैसा हम अपने लिए व्यवहार की दूसरे से इच्छा रखते हैं, वैसा ही आचरण दूसरे के साथ भी करें| 


 


 


 


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